पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/८५

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तुलगी की जीवन-भूमि फलतः भले ही अपने पालापन में अपने गुरु के साथ उन्होंने 'सूकरखेत' की--जिसे यदि एक धार सोरों के विद्वानों के अनुसार सोरों ही मान लिया जाए-याना की हो, सो भी सोरों से पुलसीदास का कोई निफट का संबंध मास साक्ष्यों के आधार पर प्रमाणित नहीं होता। [गुलगीदास ४० सं०, पृ १६१] उहा में अधिक उलझने से लाभ नहीं। सीधी सी बात सम- सूकरखेत फी देन भने की यह है कि तुलसी का 'सूकरप्रेत से लगाव क्या ? सो तुलसीदास का फयन है- जागलिक जो फया मुहाई । भरद्वाज सुनिवरहि सुनाई। फहिही सोइ संबाद वखानी । सुनहु सफल राजन मुख मानी । संभु फीन्ह यह चरित तुहावा । बहुरि कृषा फरि उमहिनुनाया। सोर सिव फाग मुटिदि दीन्दा । राममगत अधिकारी चीन्हा । तेहि गन जागबलिक पुनि पाया । तिन्ह पुनिभरद्वानप्रति गावा । ते श्रोता बफता समसीला । सचदरसी चानहिं हरि लीला। जानहिं तीनि पाल निज शाना । फरतलगत आमरूफ समाना । यहाँ तक तो कथा का संप्रदाय' निश्चित रूप में चला । इसके आगे के क्रम का पता नहीं। हाँ, अति सामान्य रूप से कह दिया गया-

औरी.जे हरिभगत सुजाना । फहहिं मुनहिं समुशाहिं विधि नाना ।

विचारने की बात है कि यह तो स्वयं तुलसीदास के समय की आँखों देखी बात है न ? तुलसी को इसी के बाद कहना पड़ा कदाचित् इसी से कि- मैं पुनि निज गुंर सन नुनी फया सो सूफरखेत ।

  • जिज्ञासा प्रबल होती है कि पुनि' की पुकार क्या ? यदि

इसका सीधा लंगाव लागवलिक पुनि' और 'पुनि भरद्वाज' से