पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/९४

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राजापुर के तुलसीदास ८३ है जिसमें तुलसीदास का नाम आता है। फलतः विरोधी साक्ष्यों के अभाव में यह भी मानने में विशेष कठिनाई न होनी चाहिए कि इस वंश के पूर्वपुरुप गणपति का संबंध किसी प्रकार से तुलसीदास से शिष्य गुरु का था। [तुलसीदास तु० सं०, पृष्ठ १०-१] निवेदन है, ऐसा किसी प्रकार संभव नहीं दिखाई देता। हमें भूलना न होगा कि जिस पट्टे वा कागद में 'तुलसी' का नाम आता है उसी में उनके नाम के कुछ पहले किसी 'मदारीलाल' का नाम आता है जो उक्त उपाध्याय वंश के प्राणी बताए जाते हैं। हम देख ही चुके हैं कि प्रस्तुत उक्त 'वंशवृक्ष' में 'शिवाराम' और मदारीराम सहोदर और गनपतराम के पुत्र हैं। हम यह भी देख चुके हैं कि पं० मदारीराम के ३ भतीजे हैं। हमारी समझ में पं० मदारीराम के निधन पर उनका 'अंश' 'तिहावा-तिहवा' इन्हीं तीनों भतीजों में उक्त कागद के अनुसार बँट गया। हमने पहले भी कहा था- इसमें जो अंश विशेष महत्त्व का है वह है ...साई तुलसीदास के [ ] समै का महसूल । ... साई' के पहले 'गो' लगा देने से गोसाई तुलसीदास तो निकल आए परन्तु 'समैं' के पहले 'छ' लगा देने से कुछ उलझन भी टपक पड़ी। श्री गुप्त श्री रामवहोरी शुक्ष के ठीक नहीं समझते। उनकी दृष्टि में 'बस' के 'स' के साथ 'ब' को जोड़ना ठीक नहीं है। स 'समै का अंश है, कुछ 'स' का नहीं। कारण उनकी दृष्टि में यह है कि 'वंस मै का महसूल' का प्रयोग प्रचलित नहीं। परंतु वस्तुतः ऐसा है नहीं। ऐसा प्रयोग आज भी प्रचलित है। में के साथ 'से' और 'मैं' के साथ 'का' का प्रयोग खड़ी बोली में आज भी होता है। यदि इसको 'समै समझा जाय तो भी 'समै इस 'व' को