पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/५४

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भरम तौ लौं जानिये, शून्यकी करै आस ॥ भरम शुद्ध शरीर तो लौं, भरम नांव बिनावं । भरम मन 'रैदास' तौ लौं, जौ लूं चाहै ठांव ॥ “भक्ति में यद्यपि अद्भुत समन्वय है पर शिव और विष्णु की भक्तियों की दो धाराएं समानांतर बनी रही हैं । शिव की भक्ति स्थापना के लिए एक और 'शिव-पुराण' की रचना हुई है तो दूसरी ओर वैष्णवों ने 'विष्णु पुराण' की रचना की है। हम देख चुके हैं कि भक्ति में विष्णु का सर्वोच्च महत्त्व अन्तत्वोगत्वा स्वीकार कर लिया गया था, पर 'शिव-भक्ति' किसी स्तर पर भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रही। शिव और विष्णु की प्रतिस्पर्धा की भरपूर सूचनाओं को दर्ज करते हुए भी प्रयत्न यह रहा प्रतीत होता है कि किसी न किसी प्रकार जोड़-तोड़ से शिव और विष्णु का समायोजन कर लिया जाए पर कहीं भी शिव के संदर्भ में विष्णु का वर्चस्व स्थापित नहीं किया जा सकता । यह स्थिति शायद उपासकों के दो वर्गों को सूचित करती है जो समान रूप से प्रभुत्त्वशाली बने रहे हैं, परस्पर टकराते रहे हैं, दोनों का समान अस्तित्व मानने के लिए बाध्यता बनी रही और उन्हें भक्ति में समायोजित करने की कोशिश निरन्तर बनी रही है । "S संत रविदास निर्गुण को मानते हैं, वे राम की बात करते हैं, लेकिन उनका राम विष्णु का अवतार नहीं है। रविदास व अन्य संतों की भक्ति को न तो वैष्णव भक्ति में रखा जा सकता है और न ही शिव भक्ति में । मध्यकालीन संतों ने भक्ति की प्रचलित धाराओं को त्यागकर भक्ति को अलग रूप से ही परिभाषित किया, जिसमें कर्मकाण्डों पर जोर नहीं है, बल्कि सहज भक्ति पर जोर है। "संत कवियों ने भक्ति में और कर्मकांड में अन्तर किया । संत कवियों ने बाहरी दिखावों की बजाए ज्ञान पर जोर दिया था। संत रविदास ने भक्ति ने उन रूपों का खंडन किया, जिनमें बाहरी दिखावों पर जोर रहता है । भक्ति को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि भक्ति का भाव तब कहा जा सकता है, जब मनुष्य अपनी प्रशंसा या अहंकार का त्याग कर देता है। रविदास ने कहा कि नाचने, गाने, तप करने, और पैर धोने से क्या होता है ? सिर मुंडाने से क्या होता है ? तत्त्व को पहचानने में ही भक्ति हैं भगति ऐसी सुनहु रे भाई । आइ भगति तब गई बड़ाई ॥ टेक ॥ कहा भयो नाचे अरू गाये, कहा भयो तप कीन्हे । कहा भयो जे चरन पखारे, जौं लौं तत्व न चीन्हे । कहा भयो जे मूंड मुंडायो, कहा तीर्थ व्रत कीन्हे । संत रविदास : भक्ति बनाम मुक्ति / 57