पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/५६

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संत रविदास ने धर्म के नाम पर बाहरी ढकोसलों का विरोध किया। संत रविदास ने कहा कि ईश्वर की भक्ति के लिए मंदिर या मस्जिद में जाकर सिर झुकाना जरूरी नहीं है। मंदिर या मस्जिद में जिस ईश्वर को विद्यमान समझकर सिर झुकाया जाता है वह तो सभी स्थानों पर विद्यमान है। धर्म-स्थलों का और व्यक्ति की आध्यात्मिक-धार्मिक जरूरत का कोई अनिवार्य संबंध नहीं है । देहरा अरु मसीत मंहि, 'रविदास' न सीस नंवाय । जिह लौ सीस निवावना, सो ठाकुर सभ थांय ॥ संत रविदास आचरण में नैतिक मूल्यों को उतारने को ही भक्ति मानते थे, इसलिए उन्होंने न तो ईश्वर का कोई रूप निश्चित किया और न ही किसी विशेष प्रकार के पूजा-विधान की वकालत की। इसके विपरीत उन्होंने कहा कि जब तक मन पवित्र नहीं है, तब तक ईश्वर नहीं मिल सकता। मन की पवित्रता का अर्थ यहां अपनी बुराइयों को दूर करने से है। देता रहे हज्जार बरस, मुल्ला चाहे अजान । 'रविदास' खुदा नंह मिल सकइ, जौ लौं मन शैतान ॥

जे ओहु अठि सठि तीरथ न्हावै । जे ओहु दुआदस सिला पूजावै ॥ जे ओहु कूप तटा देवावै । करै निंद सभ बिरथा जावै ॥ साध का निंदकु कैसे तरै । सरपर जानहु नरक ही परै ॥ जे आहु ग्रहन करै कुलखेति । अरपै नारी सीगार समेति ॥ सगली सिंमृति स्रवनी सुनै । करे निन्द कवनै नहीं गुनै ॥ जे ओहु अनिक प्रसाद करावै । भूमिदान सोभा मंडपि पावै । अपना बिगारि बिरांना सांढै । करै निंद बहु जोनी हांढै ॥ निन्दा कहा करहु संसारा । निन्दक का परगटि पाहारा ॥ संत रविदास : भक्ति बनाम मुक्ति / 59