पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/५७

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निन्दकु सोधि साधि बीचारिआ । कहु रविदास पापी नरकि सिधारिआ ॥

राम बिन संसै गांठ न छूटै । काम, क्रोध, मोह, मद, माया इन पांचन मिलि लूटै ॥ हम बड़ कवि, कुलीन हम पंडित, हम जोगी संन्यासी । ज्ञानी गुणी सूर हम दाता, यहु मति करै न नासी ॥ पढ़ गुनै कुछ समझ न परहीं, जो लौं भाव न दरसै । लोहा हिरन होय धौं कैसे, जो पारस नहिं परसै । कह 'रैदास' समै असमंजस, भूलि परै भ्रम भोरे । मोर अधर नाम नारायण, जिवन प्राण-धन मोरे ॥ 66 'जो भी हो, अपने वर्तमान रूप में गीता में भक्ति सिद्धांत का पूर्णनिरूपण उपलब्ध होता है और भक्त विश्वरूपधारी भगवान से प्रार्थना करता है कि पिता जैसे अपने पुत्र के और प्रेमी जैसे अपनी प्रिया के अपराध सहन कर लेता है उसी प्रकार आप भी मेरे अपराध सहन कर लें (9.44 ) । परन्तु गीता के भक्ति-सिद्धांत में दास्य भाव ही प्रधान है । भावुक प्रेम भाव की अभिव्यक्ति नहीं है । भक्त को अपनी अकिंचनता का बोध है और वह विनम्रतापूर्वक अनुग्रह की प्रार्थना करता है और कहता है कि हे भगवन्, आपका विराट् आश्चर्यमय रूप देखकर मैं भयभीत हो उठा हूं, कृपया आप मुझे अपना देवरूप ही दिखाइए (11.45 ) । कहा जा सकता है कि जैसे ऋग्वेद की ऋचाओं में एक वर्गहीन समाज के आत्मीय संबंधों की झलक पाई जाती है वैसे ही वर्गबद्ध समाज में अवस्थित गीता का कवि एक अकिंचन दास-कर्मकर के रूप में भक्त की कल्पना करता है जो अपने अधिपति या स्वामी के प्रभुत्व से पूर्णतया अभिभूत है और उसकी कृपा पर अवलम्बित है। परन्तु गीता की भक्ति- कल्पना उपासक के केवल मनोभाव तक ही सीमित नहीं है। उसका प्रबल सामाजिक पक्ष है। जिसमें निष्काम कर्म का उपदेश दिया गया है। अब गीता में कर्म की परिभाषा क्या है ? यहां 'कर्म' वैदिक साहित्य में वर्णित कर्मकाण्ड का अर्थ नहीं रखता, अपने वर्ण-धर्म के अनुसार निर्दिष्ट कर्मों को बिना फल की कामना किए करते रहना ही गीता का निष्काम कर्मयोग है। गीता में वर्णित भक्ति का वर्ण धर्म एक अभिन्न अंग है। स्पष्ट रूप कहा गया है कि : श्रेयान स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुनष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः । ( 3.55) 60 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास