पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/५९

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" डा. सेवा सिंह ने समाज में भक्ति की भूमिका को रेखांकित करते हुए लिखा कि "प्राचीन भारत में ईसा पूर्व अर्द्धसहस्राब्दी के दौरान, जनजातियों की निरन्तर नई शमूलियतों की एकजुटता और लोहे के व्यापक प्रयोग से कृषि विस्तार के फलस्वरूप उदीयमान नए कृषक वर्गों की विचारधारक जरूरतों के दबाव में भक्ति का उद्भव हुआ है। कालान्तर में मध्यकालीन सामंतीय रूपांतरणों के तहत क्रूर अमानवीय सोपानिक सामाजिक संबंधों को वैचारिक औचित्य प्रदान करते हुए निचले तबकों की अन्तश्चेतना को बद्धमूल बनाए रखने में भक्ति कारगर साबित हुई है। संत रविदास के साहित्य में आत्मसातीकरण व संस्कृतिकरण के संकेत स्पष्ट तौर पर दिखाई देते हैं। संत रविदास ने बार-बार इस बात पर जोर दिया। कि वह परमात्मा की शरण में आने से श्रेष्ठ हो गए हैं। जाति से निम्न होने के बावजूद भी वे भक्ति के कारण उच्च समाज से सम्मान प्राप्त करने के अधिकारी हो गए ऊंचे मंदर सुन्दर नारी । राम नाम बिनु बाजी हारी ॥ मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओच्छा जनमु हमारा । तुम सरनागति राजा राम चन्द कहि रविदास चमारा । संत रविदास ने कहा कि कबीर, नामदेव, सदना, सेना आदि निम्न जाति के होने के बावजूद भक्ति के कारण उच्च हो गए। निम्न जाति के लोगों में ऊंच-नीच श्रेणियां समाप्त करने की बजाए भक्ति द्वारा स्वयं को ऊंचा उठाने का काम किया । दलित-मुक्ति के संघर्ष की यही विडम्बना रही है कि वह श्रेष्ठ निम्न की संरचनाओं को समाप्त करने की बजाए संघर्षशील तबकों को श्रेष्ठता की श्रेणी में आने पर ही संतुष्ट होता रहा है। इससे ब्राह्मणवादी सोच व तंत्र को ज्यों का त्यों कायम रहने में मदद मिली। इस प्रक्रिया में भक्ति ने अत्यधिक भूमिका निभाई है। ऐसी लाल तुझ बिनु काउनु कर । गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्र धेरै ॥ जा की छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै । नीचहु ऊंच करै मेरा गोबिन्दु काहू ते न डरै ॥ नामदेव कबीरु त्रिलोचनु सधना सैन तरै । कहि रविदास सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभै सरै ॥

हरि जपत तेऊजनां पदम कवलासपति तास समतुलि नहीं आन कोऊ । 62 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास