पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/६०

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एक ही एक अनेक होइ बिसथरिओ आन रे आन भरपूरि सोऊ ॥ जाके भागवतु लेखीऐ अवरु नहीं पेखीऐ तास की जाति आछोप छीपा । बिआस महि लेखीऐ सनक महि पेखीऐ नाम की नामना सपत दीपा ॥ जाके ईदि बकरीदि कुल गऊरे बधु करहि मानी अहि सेख सहीद पीरा । जाकै बाप वैसी करी पूत ऐसी सरी तिहूरे लोक परसिध कबीरा ॥ जाकै कुटुंब के ढेढ सभ ढोर ढोवंत फिरहि अजहु बनारसी आस-पासा। आचार सहित विप्र करहि डंडउति तिन तनै रविदास दासान दासा ॥

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ऐसे जानि जपो रे जीव । जपि ल्यो राम, न भरमो जीव ॥ गनिका थी किस करमा जोग । पर-पुरुष सो रमती भोग ॥ निसि बासर दुस्करम कमाई । राम कहत बैकुंठे जाई ॥ नामदेव कहिये जाति के ओछ। जाको जस गावै लोक ॥ भगति हेत भगता के चले। अंकमाल ले बठिल मिले ॥ कोटि जग्य जो कोई करै । राम नाम तउ न निस्तरै ॥ निरगुन का गुन देखौ आई । देही सहित कबीर सिधाई ॥ मोर कुचिल जाति कुचिल में बास । भगत चरन हरि चरन निवास । चारिउ बेद किया खंडौति । जन रैदास करै डंडौति ॥ संत रविदास : भक्ति बनाम मुक्ति / 63