पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/६१

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संत रविदास इस बात को रेखांकित करते हैं कि निम्न जाति से संबंधित होने के कारण ब्राह्मण लोग उनके सामने दण्डवत होते हैं । विनों का प्रधान भी उन्हें प्रणाम करता है। संत रविदास इसका श्रेय राम की शरणागति को देते हैं। ब्राह्मणवादी विचारधारा ने भक्ति के माध्यम से समाज के संघर्षशील व असंतुष्ट पीड़ितों को कुछ राहत देकर उनका शोषण जारी रखा है। इसीलिए भारतीय समाज में जाति- प्रथा जैसी घिनौनी व अमानवीय प्रथाओं का खात्मा नहीं हो पाया। जब भी जाति- व्यवस्था के समक्ष अस्तित्व की चुनौती खड़ी हुई तो उसने इस आंदोलन को अपने में समा लेने की रणनीति बनाई । नागर जनां मेरी जाति बिखियात चमारं । रिदै राम गोबिंद गुन सारं ॥ सुरसरी सलल कृत बारूनी रेसंत जन करत नहीं पानं । सुरा अपवित्र न ते अवर जल रे सुरसरी मिलत नहि होइ आनं ॥ तर तारी अपवित्र करि मानीऐ रे जैसे कागरा करत बीचारं । भगति भागउत लिखीऐ तिह ऊपरे पूजीऐ करि नमस्कारं ॥ मेरी जाति कुटब ढांला ढोर ढोवंता नितहि बनारसी आस-पासा । अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडउति । तेरे नाम सरणाई रविदास दासा ॥

प्रभु जी संगति सरन तिहारी । जग जीवन राम मुरारी ॥ गलि गलि को जल बहि आयो, सुरसरि जाय समायो । संगत के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो । स्वांति बूंद बरसै फनि ऊपर, सीस विषै होइ जाई । ओही बूंद कै मोती निपजै, संगति की अधिकाई ॥ तुम चंदन हम रेंड बापुरे, निकट तुम्हारे आसा । संगत के परताप महातम, 64 / दलित मुक्ति की विरासत: संत रविदास