पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/६३

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में रैदास ईश्वर के सम्मुख आत्महीनता को स्वीकार करते हुए विनत होते हैं, इसके बाद वे ब्रह्मा की सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, उदारता, दीन-दलितों के प्रति सदाशयता का वर्णन करते हैं तथा अन्त में आकर वे इस बात से आत्म-उन्नयन को अनुभव करते हैं कि वेदज्ञ विप्र भी उन्हें उन्हें दण्डवत करते हैं। इस व्यक्तिगत समस्या के सहारे ही उनकी आध्यात्मिक विचारधारा अंकुरित और पल्लवित हुई है। इस प्रकार जाने-अनजाने वे उस सामाजिक समस्या पर भी विचार कर गए हैं, जिसने जाति और वर्ण के नाम पर विशाल जनसंख्या का सामाजिक और मानसिक शोषण किया है। सामाजिक दुर्व्यवहार और राजनैतिक अव्यवस्था के संत्रास को सर्वाधिक उस समय की जातियां सह रही थी । इसलिए रैदास भगवान् की भक्ति की ओर उन्मुख हुए हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में भगवान नीचों को ऊंचा बनाने वाला है, अतएव वे रैदास की भी विपत्ति को हरने में समर्थ हैं। रैदास की भक्ति इसी साध्य को पाने का साधन है । साध्य के प्रति उनकी निष्ठा भक्ति की गम्भीरता और तल्लीनता से लक्षित है।” संदर्भ 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. कुंवरपाल सिंह (सं.) ; भक्ति आंदोलन: इतिहास और संस्कृति, पृ. 56 जतन (त्रैमासिक) सावित्री सिन्हा; हिन्दी भक्ति साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद; पृ. सावित्री शोभा; हिन्दी भक्ति साहित्य में सामाजिक मूल्य एवं सहिष्णुतावाद; पृ. 10 डा. सेवा सिंह, भक्ति और जन; पृ. 100 कुंवरपाल सिंह (सं.); भक्ति आंदोलन : इतिहास और संस्कृति, पृ. 60; (सुवीरा जायसवाल का लेख, प्राचीन काल में भक्ति का स्वरूप : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य) डा. सेवा सिंह, भक्ति और जन पृ. 110 बलदेव वंशी; कबीर : एक पुनर्मूल्यांकन पृ. 229 धर्मपाल मैनी, रैदास; पृ. 49 66 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास