पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/६४

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संत रविदास : साधु-संत बनाम गुरु-पुरोहित भारतीय समाज मुख्यतः ब्राह्मणवादी मान्यताओं से ही परिचालित होता रहा है। ब्राह्मणवादी मान्यताओं से टकराहट के साथ ही समाज में प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना हुई है। भारतीय धर्म साधना व दर्शन में 'मोक्ष' का विशेष महत्व है। वर्ण- व्यवस्था में चौथे वर्ण को ऊपर के तीन वर्णों को सेवा का अधिकार ही दिया था। निम्न वर्ग के पास संसार का व्यावहारिक ज्ञान होते हुए भी उसको 'पवित्र' कहे जाने वाले ज्ञान से वंचित करने का इंतजाम ही कर दिया था। समाज के इतने बड़े हिस्से को संत, साधु, गुरु व ज्ञान प्रदाता के समस्त रूपों से बहिष्कृत कर दिया था। कथित मोक्ष प्राप्ति में धार्मिक कहे जाने वाले अनुष्ठानों का विशेष महत्त्व भी स्वीकार किया गया है। इन धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करवाने में पुरोहित की विशेष भूमिका रही है। पुरोहित समाज को नैतिक व्यवस्था देने वाला माना जाता रहा है। पुरोहित की कथित 'धार्मिक' व्यवस्थाएं ही निम्न वर्ग के सामाजिक- आर्थिक शोषण की वैधता प्रदान करती थीं। पुरोहित की नैतिक सत्ता को ध्वस्त किए बिना शोषण की व्यवस्था पर चोट करने की कोई भी योजना कारगर नहीं हो सकती थी। मध्यकालीन संतों ने इस पर सीधा हमला बोला। धार्मिक कर्मकांडों को हेय बताकर उसके कार्य की नैतिक मान्यता पर प्रश्नचिह्न लगाया और उसकी जगह गुरु या उसके समकक्ष साधु नामक एक अलग संस्था को स्थापित किया। ब्राह्मणवादी विचारधारा और संतों की समानता की विचारधारा में न केवल अन्तर था, बल्कि वे एक दूसरे के विपरीत भी खड़े थे। पुरोहित जहां बाहरी दिखावे व कर्मकांडों को अंजाम देता था वहीं संतों द्वारा परिभाषित गुरु व्यक्ति के अन्तरमन को पवित्र करने की प्रेरणा देता था। व्यक्ति का यह अन्तरमन नैतिक बोध के अलावा कुछ नहीं था। गुरु की सत्ता को समाज में सबसे उच्च स्थान देने के लिए संतों ने उसके संत रविदास साधु-संत बनाम गुरु पुरोहित / 67