पृष्ठ:दासबोध.pdf/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समास १०] नरदेह की स्तुति। यह कदापि पराधीन नहीं है, परन्तु इसे परोपकार में लगा कर कीर्तिरूप ले 'जगत् में जीवित रखना चाहिए ॥२५॥ घोड़ा, बैल, गाई, भैंसी, आदि अनेक पशु तथा स्त्रियां और दासी इत्यादि को, यदि कृपा करके कोई बन्धन ले छोड़ भी देगा तो, कोई न कोई उन्हें पकड़ ही लेगा ॥ २६ ॥ । परन्तु यह नरदेह वैसा नहीं है । यह, अपनी इच्छा के अनुसार, चाहे रहे चाहे चला जाय । देखो, इसे कोई बांध नहीं सकता ॥ २७ ॥ नरदेह यदि पंगु है तो वह काम में नहीं आता, अथवा यदि वह लूला होता है तो भी परोपकार में नहीं लग सकता ॥ २८ ॥ वह यदि अंधा हुआ तो बिल- कुल ही व्यर्थ गया, अथवा यदि बहरा हुआ तो भी निरूपण श्रवण नहीं कर सकता ॥ २६ ॥ यदि मूक हुआ तो शंका-समाधान नहीं कर सकता और यदि अशता, रोगी या सड़ियल हुआ तो भी व्यर्थ ही है ॥ ३०॥ वह यदि मूर्ख हुआ या उसमें फेफड़े का रोग हुआ तो भी, निश्चय करके, उले निरर्थक ही समझिये ॥ ३१ ॥ सारांश, इस प्रकार की त्रुटियां जिसमें न हों और शरीर सब तरह से ठीक हो उसे शीघ्रही परमार्थ-मार्ग पर आना चाहिए ॥ ३२॥ जो शरीर से लब प्रकार आरोग्य होते हुए भी परमार्थ-चुद्धि भूले हुए हैं वे मूर्ख मायाजाल में कैसे फँसे हैं ! ॥३३॥ मिट्टी के घरों को इन भूखों ने अपना मान रखा है; परन्तु यह उन्हें नहीं मालूम है कि इन घरों पर बहुतों का अधिकार है ॥३४॥ चूहा, छिपकली, मक्खी, मकड़ी, चीटा, चीटी, बिच्छू, सर्प, लखहरी, बर्र, भौंरा, झिल्ली, इत्यादि सभी इस घर को अपना समझते हैं। ३५-३८ ॥ इसी प्रकार विल्ली, कुत्ता, नेवला, पिस्सू, खटमल, झींगर, कनखजूर, इत्यादि अनेक जीव इसे अपना ही घर मानते हैं ॥ ३६-४३ ॥ पशु, दासी और घर के मनुष्य उसे अपना समझते हैं ॥४४॥ पाहुने और मित्र, तथा कभी कभी गावँ के अन्य लोग भी, उसे अपना बतलाते हैं ॥ ४५ ॥ चोर कहते हैं कि हमारा घर है, राजा कहता है कि इस घर पर हमारी सत्ता है और अग्नि कहती है कि हमारा घर है, लामो भस्म करें ॥४६॥ इस प्रकार सभी कहते हैं, घर हमारा है और ये मूर्ख मनुष्य भी कहते हैं कि घर हमारा ही है। परन्तु अन्त में, कोई आपत्ति श्रा जाने पर, घर ही नहीं, किन्तु ग्राम और देश को भी छोड़ कर भग जाते हैं ॥ ४७ ॥ अन्त में सारे घर गिर पड़ते हैं; गावँ ऊजड़ होजाता है; फिर उन घरों में बन के वनैले जन्तु रहने लगते हैं ॥ ४८ ॥ इसमें कोई सन्देह नहीं कि चीटी, नेवला, चूहा आदि कीड़ों का ही यह घर है। ये विचारे मूर्ख मनुष्य तो उसे छोड़ ही जाते हैं ॥ ४६॥ घरों की दशा ऐसी ही