पृष्ठ:दासबोध.pdf/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दासबोध। [दशक २ अस्तु । जो मनुप्य इस प्रकार के नाना विकारों और कुलक्षणों का घर है उसीको श्रोतागण कुविद्यावान समझे ॥ ३६॥ ये कुविद्या के लक्षण जानकर त्यागही देना चाहिये । दुराग्रह में आकर इन्हें पकड़े रहना अच्छा नहीं। चौथा समास-भक्ति-निरूपण । ।। श्रीराम || पहले तो यह नरदेह ही नाना प्रकार के सुकृतों का फल है, फिर उसमें भी जब बड़ी भाग्य होती है तभी यह देह सन्मार्ग में लगता है ॥१॥ नरदेह में ब्राह्मण का जन्म श्रेष्ठ है, उसमें भी संध्या, स्नान, अच्छी चासना और परमात्मा का भजन तभी बनता है जब पूर्वजन्म का पुण्य होता है ॥२॥ पहले तो परमात्मा की भक्ति ही उत्तम है और फिर उसमें भी यदि सत्समागम होगया तो समय सार्थक हो जाता है। यही परम लाभ है ॥३॥ प्रेम और प्रीति का सद्भाव, भक्तों का जमाव, हरि- कथा का महोत्सव श्रादि बातों से भक्षिा बहुत बढ़ जाती है ॥ ४॥ नर- देह पाकर जीवन को थोड़ा बहुत सार्थक जरूर करना चाहिये, जिससे परलोक, जो परम दुर्लभ है, मिले ॥ ५॥ विधि-पूर्वक (वेदविहित) ब्राह्मण के कर्म, अथवा दया, दान, धर्म, अथवा भगवान् का भजन, जो सुलभ है, करना चाहिये ॥ ६ ॥ संसार-दुःखों से अनुतप्त होकर सर्व- संग-परित्याग करना चाहिए अथवा भक्तियोग का स्वीकार करना चाहिये, नहीं तो साधुओं का संग करना चाहिये ॥ ७ ॥ अनेक शास्त्रों का मथन, तीर्थपर्यटन अथवा पापक्षय के लिए पुरश्चरण करना चाहिये ॥८॥ परोपकार, ज्ञान का विचार और अध्यात्म-निरूपण में सारासार का विवेक करना चाहिये ॥६॥ वेदों की आज्ञा का पालन करना चाहिए, कर्मकांड और उपासनाकांड का आचरण करना चाहिए । यह करने से मनुष्य ज्ञान का अधिकारी बनता है ॥ १० ॥ तन, मन, वचन, पत्र, पुष्प, फल, जल-जिससे बने उसीसे परमात्मा को सन्तुष्ट. कर के अवश्य अपना जीवन सार्थक करना चाहिए ॥ ११॥ जन्म लेने का फल यही है कि यहां आकर कुछ धर्मकर्म करे; यदि कुछ न किया गया तो व्यर्थ के लिए भूमि को भार होता है ॥ १२ ॥ मनुप्य को उचित है कि कुछ आत्म- हित करे और यथाशक्ति तन-मन-धन · ईश्वर के कामों में लगावे