पृष्ठ:दासबोध.pdf/१३

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२ वालबोध! कमाई हुई जायदाद का हिस्सा लेना उचित नहीं समझा, इसलिए वे हिवेरा से कुछ दूर बड़गाँव को चले गये । उस गाँब की बस्ती उजाड़ हो गई थी और वहाँ ग्वाल जाति के कुछ लोग गायें चराने के लिए जंगल में रहते थे। उन ग्वालों के मुखिया लखमाजी को जमीदार बना कर दशस्थपन्न वहाँ पटवारी और पुरोहित का काम करने लगे। उस गाँव का नाम उन्होंने जाँव रखा । यह गांव इस समय श्रीरामदासत्वामी की जन्मभूमि होने के कारण अत्यन्त पवित्र क्षेत्र माना जाता है। कुछ दिनों के बाद जाँब के आस-पास कई गाँव बस गये। और उस इलाके के पटवारी और पुरोहित का काम दशरथपन्त ही को मिला। वे बड़े भगव- शक्त थे । उनके मुग्थ्य उपास्य देव श्रीरामचन्द्र ही थे । उनकै छै पुत्र हुए । ज्येष्ठ पुत्र का नाम रामाजीपन्न था। पिता के सरने बाद रामाजीपन्त को जाँव इलाके की वृत्ति मिली । उपर्युक्त कृष्णाजीवंत. दशरथपन्त और रामाजीपंत श्रीसमर्थ रामदासस्वामी के वंश की पहली, दूसरी और तीसरी पीढ़ी के मूल पुरुष थे । रामाजीपन्त के बाद उन्नीसवीं पीढ़ी में सूर्याजी पन्न नाम के प्रसिद्ध भगवद्भता और ब्रह्मज्ञानी पुरुष हो गये। इनकी स्त्री का नाम राणुबाई था । यही मूर्याजीपन्न और गाणुबाई रामदासस्वानी के पिता-माता हैं। अपने यहाँ भगवद्भक्तों के वंश में एक विशेष प्रकार का चमत्कार, पाया जाता है। ऐसे वंशों में, चार ही पाँच वर्ष के बालकों में, विरक्ति और भक्ति के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। इस लोक के चार पात्र बयों के संस्कार से ही इतना परिणाम वालक पर होना असम्भव है। जान पड़ता है कि, यह संस्कार पूर्वजन्मों का होता है । अग्तु । सूर्याजीपन्त का भी नहीं हाल था ! बालपन ही से उनमें भगवद्भक्ति और विरक्ति तथा सद्गुणों के चिन्ह प्रकट होने लगे थे । वारह वर्ष की उम्र से उनकी भक्ति सूर्यनारायण पर जम गई थी। वे यट- बारी का नारका काम तो करते ही थे; पर उनका शेष सारा समय सूर्यनारायण की उपासना में ही व्यतीत होता था। इस प्रकार ३६ वर्ष की अवस्था तक उन्होंने सूर्यदेव का अनुष्ठान किया । कहते हैं कि, अन्त में सूर्यनारायण ने, प्रसन्न होकर, स्वयं अपनी इन्छा में, उन्हे दो पुत्र होने का वरदान दिया। शाके १५२७ ( सन् १६०५) में सूर्याजायन्त के प्रथम पुत्र का जन्म हुआ । उसका नाम गंगाधर रक्खा गया । यही आगे " श्रेष्ठ" और " रामारामदास" के नामों से प्रसिद्ध हुए। उनके जन्म के दो बाई वर्ष बाद, शाके १५३० ( सन् १६०८ ई० के अप्रेल में ) कौल नामक संवत्सर में में, चैत्र शुद्ध के दिन, दोपहर के समय, अर्थात् ठीक रामजन्म के समय, साध्वी राणु- चाई और सूचांजापन्त के दूसरे पुत्र का अवतार हुआ । उसका नाम नारायण रक्खा गया । गही नारायण श्रीसमर्थ रामदासस्वामी के नाम के प्रसिद्ध है और यही आज हमारे प्रस्तुत लेख के चरिननायक है । जव से पूर्याजीपन्त के यहाँ उनका जन्म हुआ तवसे उनके घर मे सुख, समृद्धि और शान्ति की बड़ती होने लगी। उस समय महाराष्ट्र-प्रान्त में एकनाथ महाराज बड़े प्रसिद्ध और ब्राज्ञानी साधु थे। सूर्याजीपन्त अपनी स्त्री राणुवाईसहित प्रति वर्ग उनके दर्शनों के लिए जाने थे। सूर्याजीपन्त जव उनके यहाँ से दर्शन करके विदा होने