पृष्ठ:दासबोध.pdf/१३१

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तीसरा दशक । पहला समास-जन्म-दुःख-निरूपण । ॥ श्रीराम ।। जन्म दुख का अंकुर है, जन्म शोक का सागर है; और जन्म भय का 'अचल पर्वत है ॥ १॥ जन्म कर्म की घड़िया है, जन्म पाप की खान है और जन्म ही काल का नित नया दुख है ॥ २॥ जन्म कुविद्या का फल है, जन्म मोह का कमल है और जन्म ही ज्ञानहीन भ्रान्ति का पड़दा है ॥३॥ जन्म जीव का बन्धन है, जन्म मृत्यु का कारण है और जन्म ही व्यर्थ के लिए फंसाता है ॥ ४॥ जन्म सुख का विस्मरण है, जन्म चिन्ता का आगर है और जन्म ही वासना के विस्तार-रूप में फैला हुआ है ॥५॥ जन्स जीव की कुदशा है, जन्म कल्पना का चिन्ह है और जन्म ही ममता- रूप डाकिनी का फेरा है ॥ ६॥ जन्म माया का फंदा है, जन्म क्रोध की वीरता है और जन्म ही मोक्ष के बीच में विघ्नरूप है ॥ ७ ॥ जन्म जीव का 'मैं-पन' है; जन्म अहंता का गुण है; और जन्म ही ईश्वर का विस्म- रणरूप है ॥ ८॥ जन्म ही विषय की प्रीति है, जन्म ही दुराशा की वेड़ी है और जन्म ही काल की ककड़ी है, जिसे वह खा रहा है ॥६॥ जन्म ही विषमकाल है; जन्म ही एक विकट समय है; और जन्म ही अति दुःखद नर्कपतन है ॥ १०॥ यदि शरीर का मूल देखा जाय तो इसके समान मंगल और कुछ नहीं है। रजस्वला की छूत से इसका जन्म है ! ॥११॥ अत्यंत दूषित जो रजस्वला का रज (छूत) है उसीका यह पुतला है। वहां निर्मलता की बात कहां है ? ॥ १२॥ रजस्वला की छूत इकट्ठी होकर जो एक बुलबुला बनता है केवल उसी बुलबुले का यह शरीर है ॥ १३॥ ऊपर ऊपर से तो यह (शरीर) सुन्दर देख पड़ता है, परन्तु भीतर इसके नर्क का गठड़ा रखा है। यह एक प्रकार का चर्मकुंड है, जिसका ढक्कन दुर्गन्धि के मारे खोलाही नहीं जाता ॥ १४ ॥ भला, कुंड तो धोने से शुद्ध भी हो जाता है; परन्तु इसे (शरीर को) रोज धोते हैं, तो भी इस दुर्गन्धित शरीर की शुद्धता नहीं होती ॥ १५॥ अस्थि-पंजर खड़ा किया; उसे नसनाड़ियों से लपेटा और मजामांस सांदसूंद कर भर दिया-बस, शरीर बन गया ॥ १६ ॥ अशुद्ध (रक्त), जो नाम से भी शुद्ध नहीं है, सो भी इस देह में भरा है; तिस पर भी इसके भीतर नाना प्रकार की व्याधियां और दुःख रहते हैं ("शरीरं व्याधिमन्दिरम् ")॥ १७ ॥