पृष्ठ:दासबोध.pdf/१३४

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स्वगुण-परीक्षा। तुला पुरुष कानवल से सदा बिना रहता है ॥ ५२ ॥ अस्तु । ये प्रदान की विपत्तियां मैन यथामति वर्गान की । अब, श्रोतागण सार- • या कराने की कथा सुनें ॥ ५३ ॥ दूसरा ससास-स्वगुण-परीक्षा। ( बालपन और बुवावस्था ।) || श्रीगम ॥ संतान की दुग्न का मूल है। यहां दुख के अंगार लगते हैं। पीछे जो गर्भवास की व्याकलना बतलाई गई-॥ १ ॥ उले, जन्म पाते ही, बालक भूल जाना और फिर दिन दिन बढ़ने लगता है ॥२॥ बचपन में त्वचा कोमल सोनी, सन्न लिए बालक घोड़ा दुख होने से ही व्याकुल हो जाता है। इस नमन्त्र में सुख-दुख बतलाने के लिए वाचा भी नहीं होती ॥३॥ शर्गर में अल कट होने पर, अथवा भूख से व्याकुल होने पर, वह बहुत गंता है: एरन्तु उसके मन की बात कोई जानता नहीं है ॥ माता ऊपर ले नो पुचकारती है; पर भीतर जो पीढ़ा हो रही है उसे वह नहीं जाननी और बालक को दुग्न हो ही रहा है ॥५॥ वार बार हुसक हुसक कर रोता है। माता गोद में लेकर पुचकार रही है। परन्तु व्यचा नहीं जानती बालक विचारा मन ही मन व्याकुल हो रहा है ॥ ६॥ अनेक व्याधियों बार बार उठती है; उनके दुख से चिल्लाता है, रोता है, गिरता है; अथवा अनि से जलता है ॥ ७ ॥ शरीर की रक्षा करना कठिन हो जाता है, अनेक उपद्रव होते है और कभी कभी दुर्घटना हो जाने के कारण बालक नंगहीन हो जाता है ॥ ॥ अथवा यदि दुर्घटनाओं से बच जाता है-पूर्वपुण्य का उदय होता है तो फिर माता को दिन दिन पहचानने लगता है ॥६॥ क्षण भर भी यदि माता को नहीं देखता तो दुन्न से, फूट फूट कर रोने लगता है । उस समय माता के समान उसे और कुछ भी प्यारा नहीं लगता ॥ १०॥ श्राशा करके वाट देखता है। माता के बिना किसी तरह भी नहीं रहता है और याद आने के बाद पलमात्र भी वियोग नहीं सह सकता है ॥ ११॥ चाहे ब्रह्मा श्रादि देव क्यों न बाजायँ, अथवा चाहे लक्ष्मी.ही.श्राकर क्यों न समझाये तो भी बह विना अपनी माता के नहीं राजी होता ॥१२॥ वह चाहे जैसी कुरूप,