पृष्ठ:दासबोध.pdf/१३७

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दालबोध। [ दशक ३ और फाँसी लगा कर प्राण ले लेते हैं वैसे ही स्त्रीपुत्रादि आप्तजन मोह में फँसाते हैं यह बात आयु व्यतीत हो जाने पर पीछे से उसे मालूम होती है ॥४७॥ सब प्रीति कामिनी (काम से भरी हुई स्त्री) में लगा देता है। यदि उससे कोई नाराज होता है तो मन ही मन बहुत बुरा लगता है ॥ ४८ ॥ उस स्त्री का ही पक्ष लेकर, मा वाप को नीच उत्तर देकर, उनका तिरस्कार करता है और अलग होकर रहता है ॥ ४६॥ स्त्री के लिए लाज छोड़ देता है, मित्रता छोड़ देता है, और स्त्री ही के कारण अपने सब स्नेहियों से विगाड़ कर लेता है ॥ ५०॥ स्त्री के कारण देह बेच देता है, सेवक बन जाता है और विवेक से भ्रष्ट हो जाता है॥५१॥स्त्री के लिए शाति लंपटता, बड़ी नम्रता और पराधीनता स्वीकार करता है॥५२॥ स्त्री के लिए लोभी या मोही बनता है, स्त्री के कारण धर्म छोड़ता है और तीर्थयात्रा तथा स्वधर्म का त्याग करता है॥५३॥ स्त्री के कारण ही किसी प्रकार का कुछ शुभ-अशुभ का विचार नहीं करता। तन-मन-धन, सब कुछ उसको अनन्य भाव से अर्पण कर देता है ॥ ५४॥ स्त्री के लिए परमार्थ डुबो देता है, अपने सच्चे हित से वंचित रहता है, ईश्वर के सामने बेई- मान बनता है और स्त्री के कारण ही कामबुद्धि में फँसता है॥५५॥ स्त्री के लिए भति छोड़ देता है, स्त्री के कारण विरक्ति का त्याग करता है और सायुज्य मुक्ति को भी तुच्छ मान लेता है ॥५६॥ एक स्त्री ही के कारण ब्रह्मांड को कुछ नहीं मानता और स्नेही लोगों को दुष्ट समझने लगता है ॥ ५७ ॥ इस प्रकार केवल स्त्री के प्रेम में फंस कर सर्वस्व का त्याग कर देता है, कि इतने ही में अकस्मात् वह भार्या भी भर जाती है ! ॥८॥ इससे मन में शोक बढ़ता है और कहता है कि "बड़ा घात हुआ अब मेरी घर-गृहस्थी डूब गयी" ॥५६॥ दुख में घबड़ा कर कहता है कि "प्राणप्यारी सुसले विलग हो गई और अकस्मात् मेरा घर बिगड़ गया ! अब माया छोड़ता हूं!!" ॥६॥ स्त्री को जंघों पर पड़ा कर छाती और पेट कूटता है और लोगों को देखते हुए भी लाज छोड़ कर उसकी प्रशंसा करता है ॥६१॥ कहता है कि "मेरा घर डूब गया; अब इस गृहस्थी में न पड़ेगा। दुःख के कारण खूब जोर जोर से चिल्ला कर रोता है ॥६२॥ पत्नी-वियोग के कारण घबड़ा कर घर-गृहस्थी से जी ऊब जाता है और दुखी होकर जोगी या महात्मा बन जाता है ! ॥ ६३ ॥ अथवा यदि घर-गृहस्थी नहीं छोड़ता है तो फिर से दूसरा विवाह करता है और उसीमें फिर मन्न हो जाता है ॥ ६४॥ दूसरी स्त्री में आनन्द मान कर वह किस प्रकार फँसता है उसका वर्णन श्रोतागण अगले समास में सुनें ॥ ६५ ॥