पृष्ठ:दासबोध.pdf/१४६

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ससाम ५] स्वगुण-परीक्षा। आया, बेटी ने अलग कर दिया । हा ईश्वर ! मेरा भाग्य फूट गया !! ॥ ३३ ॥ द्रव्य नहीं; स्त्री नहीं, ठौर नहीं; शक्ति नहीं, हे ईश्वर, तेरे विना मेरा कोई भी नहीं है!" ॥ ३४ ॥ देखो, पहले तो परमेश्वर की भक्ति नहीं की, वैभव में भूला रहा और अब वुढ़ापे में कैसा पछता रहा है !

  • ॥ ३५ ॥ शरीर अत्यन्त सूख जाता है, सव अंग मुरझा जाते हैं, वातपित्त

और कफ अपना अपना जोर करते हैं, और कंट घिर आता है ॥३६॥ जीभ लड़खड़ाती है, कफ से कंठ घड़धड़ाता है; मुहँ से दुर्गन्ध निकल रही है और नाक से श्लेष्मा बह रहा है ॥ ३७ ॥ गर्दन थर थर कांपने लगती है, आखें भल भल बहने लगतो हैं, ऐसी वुढ़ापे की दुर्दशा श्रो उपस्थित होती है ॥ ३८ ॥ दाँतों की पाँति उखड़ जाने के कारण पोपला हो जाता है, मुख से दुर्गन्धित लार टपकने लगती है ॥ ३६॥ आखों से देख नहीं पड़ता है; कानों से सुन नहीं पड़ता है, जोर से बोला नहीं जाता है और दमा घिर आता है ॥ ४० ॥ पैरों की शक्ति चली जाती है, बैठा नहीं जाता; घुसमुंडा जाता है । गुदा-द्वार से भी मुँह की तरह शब्द निकलने लगता है ! ॥ ४१ ॥ भूख लगने पर सही नहीं जाती, अन्न समय पर मिलता नहीं मिलता भी है तो चबाया नहीं जाता; क्योंकि दांत चले गये हैं ॥४२॥ पित्त के मारे अन्न पचता नहीं है, खाते ही मन हो जाता है, अथवा वैसा ही अपान-द्वार से निकल जाता है ॥ १३ ॥ विष्ठा, मूत्र, बँखार और वमन से चारों ओर की धरती खराब हो जाती है। दूर से जाने पर भी आस पास के लोगों का स्वास रुकता है! ॥४॥ नाना दुख, और व्याधियों ने घेर लिया है ! वुढ़ापे के मारे बुद्धि भी ठिकाने नहीं है ! तो भी आयु की अवधि पूरी नहीं होती!! ॥ ४५ ॥ विनियों और भौंहों के वाल पक कर बिलकुल झड़ जाते हैं ! सब अंग में चिरकुटों के समान मांस लटकने लगता है । ॥ ४६ ॥ सारा देह परा- धीन हो जाता है; अस्थिपंजर बाकी रह जाता है, तब सब लोग कहते हैं कि अव मरता क्यों नहीं है ! ॥४७॥ जन्म देकर जिनको पोसा- पाला वहीं विरुद्ध हो जाते हैं और अंत में प्राणी का बिकट समय श्रा जाता है . ॥४८॥ जवानी चली जाती है, बल चला जाता है, गृहस्थी विगड़ जाती है, शरीर और सम्पत्ति सत्यानाश हो जाती है ! ॥ ४६॥ जन्म-भर जितना स्वार्थ करता है उतना सव व्यर्थ जाता है और अन्त- काल में कैसा विषम समय आ उपस्थित होता है ! ॥५०॥ जन्म भर सुख के लिए मरता है, अंत में दुख ले.सन्तप्त होता है, इसके बाद यमयातना अलग ही भोगनी पड़ती है ! ॥ ५१ ॥