पृष्ठ:दासबोध.pdf/१६२

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समास १०] वैराग्य-निरूपण। उलको भजता है उसके लिए वैसा ही वह फलता है ॥ १६॥ भाव के द्वारा, परमार्थ के मार्ग, भक्ति की पेंट को जाते है और वहां सन्त-समागम से मोक्ष का चौक लगता है ॥ २० ॥ जो भावपूर्वक भजन में लगते हैं वे ईश्वर कतई पाचन होते हैं और अपने भाव के बल से पूर्वजों का भी उद्धार करते हैं ॥ २१ ॥ वे स्वयं मुक्त हो जाते हैं और दूसरों के भी काम श्राते हैं, अर्थात् उनकी कीर्ति सुन सुन कर अभक पुरुप भी भक्त बनते हैं ॥२२॥ जो परमात्मा का भजन करते हैं उनकी माता को धन्य है ! उन्हीं- का जन्म सार्थक है ॥ २३ ॥ जो भगवान् के प्यारे हैं उनकी कहां तक बड़ाई करूं? उन्हें अपनी कमर का सहारा देकर वह परम पिता दुःख से पार करता है ॥ २४ ॥ वहुत जन्मों के बाद, यह नरदेह, जिसके द्वारा जन्म-मरण दूर होता है-ईश्वर से भेट कराता है ॥ २५ ॥ अतएव उन भाविक जनों को धन्य है जो हरि-निधान, अर्थात् ईश्वररूपी कोश, संचित करते हैं-उनका अनन्त जन्मों का पुण्य फलीभूत होता है ॥ २६ ॥ यह आयु एक रत्नों की सन्दूक है-इसमें सुंदर भजन-रत्न भरे हैं-इसे ईश्वर को अर्पण करके अानन्द की लुट मचाओ ! ॥ २७ ॥ हरिभक्त यद्यपि सांसा- -रिक वैभव से हीन होते हैं; परन्तु वास्तव में वे ब्रह्मा, आदि से भी श्रेष्ठ हैं; क्योंकि वे सदा-सर्वदा नैराश्य के अानन्द से ही संतुष्ट रहते हैं ॥२८॥ सिर्फ ईश्वर की कमर पकड़ कर जो संसार से नैराश्य रखते हैं उन भाविकों को जगदीश, सब प्रकार से, सँभालता है ॥२६॥ भाविक भक्ता, संसार के दुःखों को ही, विवेक से, परम सुख मानता है; परन्तु अभमा लोग संसार- सुखों में ही फंसे पड़े रहते हैं ॥ ३०॥ जिनका ईश्वर में अत्यंत प्रेम है वे स्वानंद-सुख भोगते हैं, उनका अक्षय कोश (स्वानंद) अलौकिक है ॥३१॥. वे अक्षय सुख से सुखी होते हैं, संसार-दुःख भूल जाते हैं, वे श्रीरंग-रंगी, अर्थात् ईश्वर में रंग जानेवाले पुरुष, विषय-रंग से पराङ्मुख रहते हैं ॥३२॥ ये लोग नरदेह पाकर परमात्मा को प्राप्त करते हैं और अन्य अभचत अभा- गियों का यह जन्म व्यर्थ ही जाता है! ॥ ३३ ॥ जिस प्रकार किसीको अचानक कोई बड़ी धन की राशि मिल जाय और वह उसे एक कौड़ी से बदल ले, उसी प्रकार अभाविक पुरुष अपने इस अमूल्य मनुष्य-शरीर को व्यर्थ ही खोता है ॥३४॥ जिस प्रकार पूर्व-पुण्य के.कारण किसीको पारस पत्थर मिल जाय और वह बिचारा उसका उपयोग ही न जानता हो उसी प्रकार अभक्षा पुरुप, यह नरदेह पाकर, इसका सार्थक करना नहीं जानता और माया-जाल में फंस कर अपना जीवन सत्यानाश करता है ॥ ३५-३६ ॥ इसी नरदेह के संयोग से अनेक भक्त पुरुष सद्गति पा चुके