पृष्ठ:दासबोध.pdf/१६९

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दासबोध । [ दशक ४ का अनुसंधान टूटने ही न देना चाहिये-बराबर जारी रखना चाहिये ॥ ११॥ करुणा-कीर्तन के अानन्द मैं पाकर, उत्साह के साथ, कथा कहना चाहिये और श्रोता जनों के श्रवण-पुट आनन्द से भर देना चाहिए ॥ १२ ॥ कंप, रोमांच, स्फुरण और प्रेमाच-सहित परमेश्वर के गुणानु- वाद गाना चाहिये और देवस्थान में साष्टांग नमस्कार करना चाहिये, तथा लीनता के साथ लोटना चाहिए ॥ १३ ॥ पद, दोहा, श्लोक, प्रबन्ध, धाटी मुद्रा, श्रादि अनेक छंद, बीरभाटी (वीरश्री का भाषण ) और विनोद, अवसर देख कर, करना चाहिए ॥ १४ ॥ नाना प्रकार के नव- रसिक, शृंगारिक, गद्य, पद्य के कौतुक, और अनेक भांति के प्रस्ताविक वचन, शास्त्र के आधार से, बतलाना चाहिए ॥ १५॥ भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के लक्षण; नीति, न्याय और स्वधर्म की रक्षा का उपाय; साधन- मार्ग और अध्यात्म-निरूपण-ये सब अच्छी तरह से बतलाना चाहिये ॥ १६ ॥ मौका के अनुसार हरि की कथा कहना चाहिए-सगुणोपासक लोगों में सगुण परमात्मा की कीर्ति का वर्णन करना चाहिए और निर्गुण का अवसर प्रा जाने पर अध्यात्म-विद्या पर व्याख्यान करना चाहिए ॥ १७ ॥ पूर्वपक्ष को छोड़ कर, नियम के साथ, सिद्धान्त का निरूपणं करना चाहिए । अपना कथन लोगों के सामने व्यवस्थित रीति से रखना चाहिए ॥ १८ ॥ वेदों का पारायण करना चाहिये, लोगों को पुराण सुनाना चाहिए तथा माया और ब्रह्म का खुलासा, पूरे तौर पर, करना चाहिए ॥ १६॥ ब्राह्मणत्व की, आदर के साथ, रक्षा करनी चाहिए। उपासना और भक्ति के साधन तथा गुरु-परस्परा स्थिर रखना चाहिए ॥२०॥ हरिकीर्तन में वैराग्य की रक्षा करना चाहिए तथा ज्ञान के लक्षण भी न छूटने देना चाहिए । परम चतुर और विलक्षण पुरुप सभी कुछ सँभालते हैं ॥ २१ ॥ कीर्तन में ऐसा कुछ कथन न करना चाहिए. कि जिससे सुननेवालों के मन का सत्य समाधान चला जाय और सन्देह श्रा जाय । कीर्तन में नीति-न्याय के साधनों की भी रक्षा करना चाहिए ॥ २२ ॥ सगुण परमात्मा के गुणानुवाद कहने को कीर्तन कहते हैं और अद्वैत के विवरण करने को अध्यात्म-निरूपण कहते हैं। जब कभी निर्गुण का निरूपण करना हो तब परमात्मा की सगुणता की भी रक्षा करना चाहिए, अर्थात् अध्यात्म-निरूपण करते समय सगुण का खंडन न करना चाहिए ॥ २३ ॥ वक्तृता के लिए अधिकार चाहिए, अल्पज्ञ पुरुप सत्य व्याख्यान नहीं दे सकता; अतएव यथार्थ में वक्ता अनुभवी चाहिए ॥२४॥ किसीका खंडन न करते हुए, और वेद की आज्ञा का मण्डनं करते हुए,