पृष्ठ:दासबोध.pdf/१७

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६ दासबोध। लिए इस शब्द में अवश्य कुछ न कुछ भेद होना चाहिए। मातुश्री की आज्ञा भी अन्तरपट पकड़ने तक की ही थी। वह भी पूर्ण हो गई । मैं अपना वचन पूरा कर चुका । अव मैं यहाँ क्यों बैठा हूँ ? मुझे सचमुच सावधान होना चाहिए इस प्रकार मन में विचार करके समर्थ एकदम लग्नमण्डप से उठ कर भगे। कई लोग उनके पीछे दौड़े पर वे हाथ नहीं आये । इधर लग्नमण्डप में बड़ा शोर गुल नत्रा । कुछ शान्त होने पर, ब्राह्मणों ने लड़की का दूसरा विवाह कर देने के लिए शावाधार सम्मत दी। समर्थ के भगने का हाल जब उनकी माता को मादन हुआ नव वे बहुत दुःखित हुई। श्रेष्ठ ने उनका समाधान किया और कहा कि, आप कोई चिन्ता न करें। नारायण कहीं न कहीं आनन्द से रहेगा। मैं पहले ही कहता था कि उसके विवाह के प्रयन में न पड़े । अस्तु; जो हुआ सो हुआ !" टाकली में तपश्चर्या । विवाह-समय से सावधान होकर समर्थ पहले दो चार दिन अपने गाँव जाँव की पंचवटी में छिपे रहे; वहाँ से वे नासिक पंचवटी को चले गये । आज कल रेलगाड़ी से यात्रा. करने- बालों को उस समय के प्रयास-संकटों का अनुमान नहीं हो सकता। सोचना चाहिए कि, चारह वर्ष के बालक को, बाके १५४२ में (सन् १६२०) में, जाँब से नासिक-पंचवटी तक, सैकड़ों मील की यात्रा करने में, कौन कौन और किस किस प्रकार के संकटों का सामना करना पड़ा होगा। भतृहरि जी ने टोक कहा है:- । मनस्वी कार्यार्थी गणयति न दुःखं न च सुखम् । कार्य करनेवाला पुल्पार्थी और साहसी महात्मा सुख-दुःख की परवा नहीं करता। इस प्रकार के नहात्माओं के नुलक्षण बालकपन से ही अकलने लगते हैं। नासिक पहुँच कर पंचवटी में श्रीराचन्द्रजी के दर्शन करके समय वहाँ से पूर्व की ओर दो तीन मील पर टाकली नामक गाँव में गये। वहाँ गाँव के बाहर एक पुराने और विस्तृत वृक्ष की घनी छाया में कुटी बनाकर रहने लगे। टाकली में रह कर समर्थ ने तप करना प्रारम्भ किया। प्रातःकाल उठ कर गोदावरी स्नान करने जाते और वहाँ दोपहर तक कटिपर्यन्त जल में खड़े होकर जप करते थे। दोपहर के वाद पंचवटी में मधुकरी-भिक्षा माँगने जाते और श्रीरामचन्द्रजी का नैवेद्य लगाकर भोजन करते थे। इस वाद कुछ समय तक भजन करते और फिर सायंकाल होते ही जप और ध्यान में निमन्न हो जाते थे। उनका सब समय मंत्र, पुरश्चरण और भजन, अर्थात् ईश्वरा- राधन, में व्यतीत होता था। वे किसीसे बात भी न करते थे और न किसीके घर जाते थे । पानी में खड़े रहने के कारण, कमर के नीचे सब देह गल कर सफेद होगई थी। पैरों और घुटनों की खाल और मांस मछलियाँ नोच नोच कर खा जाया करती थीं। समर्थ का मन उस समय जप और ध्यान में इतना एकाग्र हो जाता था कि मछलियों के नोचने