पृष्ठ:दासबोध.pdf/१७३

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दासबोध। [दशक ४ (ब्रह्म ) आदि, बहुत से, अनुभव के द्वार है-अर्थात् इन सब द्वारों का ज्ञान प्राप्त हो जाने से अनुभव प्राता है और यह ज्ञान सन्तों की सेवा करने से मिलता है। अतएव इस चौथी भक्ति (सन्तसेवा) के योग से गौप्य (परब्रह्म) प्रकट हो जाता है ॥१०॥ ११॥ वह प्रकट होते हुए गौप्य है और गौप्य होते हुए भी प्रकट है-और वह 'गोप्य' तथा 'प्रकट' दोनों से अलग है। उसका मार्ग-उसके जानने का उपाय-गुरुगम्य है; अर्थात् महात्माओं की सेवा के विना-चौथी भक्ति किये बिना-उसका मार्ग मिल नहीं सकता ॥ १२ ॥ मार्ग है; पर वह आकाश की तरह शून्य है-गुप्त है-यह सब प्रकार से शंकापूर्ण है; और यदि उस अलक्ष को देखने जाते हैं तो वह देख नहीं पड़ता ॥ १३॥ लक्ष से जिसे लखते हैं, ध्यान से जिसे ध्याते हैं, वही ( परब्रह्म ), त्रिविधा प्रतीति से-अर्थात् शास्त्र, गुरु और आत्मा, तीनों का अनुभव एक करके स्वयं हो जाना चाहिए ॥१४॥ अस्तु । ये अनुभव के द्वार सार-असार-विचार से मालूम होते हैं और सत्य बात सत्संग से अनुभव में आती है ॥ १५ ॥ यदि सत्य देखने जाते हैं असत्य का अभाव पाया जाता है और यदि अ- सत्य देखने जाते हैं तो सत्य नहीं दिखता; क्योंकि सत्यासत्य का देखना देखनेवाले के पास है ॥ १६ ॥ देखनेवाला जिसे देखने लगता है उसीके रूप में जब वह हो जाता है-अर्थात् द्रष्टा, दर्शन और दृश्य, ये तीनों, जब एक हो जाते हैं तब फिर समाधान प्राप्त होता है ॥१७॥ कैसा ही समा- धान क्यों न हो वह सद्गुरु से ही मिलता है-सद्गुरु के विना कदापि स- न्मार्ग नहीं मिल सकता ॥ १८॥ नाना प्रकार के प्रयोग, साधन, परिश्रम, उद्योग और विद्याभ्यास, अथवा किसी प्रकार के अभ्यास से भी, गुरुगम्य (मार्ग) नहीं मिल सकता ॥ १६ ॥ जो अभ्यास से नहीं आ सकता, जो साधन से नहीं साध्य हो सकता, वह भला सद्गुरु के बिना क्यों मा- लूम होने लगा ? ॥ २० ॥ इस लिए ज्ञानमार्ग जानने के लिए सत्संग ही करना चाहिए-इसके बिना उसकी बातही न करो ॥ २१ ॥ सद्गरु के च- रणों की सेवा करना चाहिए-इसीका नाम पादसेवन है-यही चौथी भक्ति है ॥ २२ ॥ जनरूढ़ि की दृष्टि से, देव, ब्राह्मण, महानुभाव, सत्पात्र और भजन के तई दृढ़तापूर्वक सद्भाव रखना भी 'सेवा भक्ति' है; परन्तु वास्तव में सद्गुरु के ही चरणों की सेवा करने का नाम पादसेवन है ॥ २३ ॥ २४॥ यह पादसेवन नाम की चौथी भक्ति तीनों लोक को पावन करती है और इससे साधक को सायुज्य मुक्ति मिलती है ॥ २५ ॥ अत-