पृष्ठ:दासबोध.pdf/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दासबोध। [ दशक-४ फलो के स्थान, अनेक प्रकार के रसों के भिन्न भिन्न स्थान, यत्न से वनवाना चाहिए ॥ १५ ॥ अनेक प्रकार की वस्तुओं के भिन्न भिन्न टूटे स्थान नूतन वनवाना चाहिए । भगवान् का वैभव अनिर्वचनीय है-कहां तक बतलावें ॥१६॥ सब कामों के लिये तैयार रहना चाहिए, भगवान् की सेवा में तत्पर रहना चाहिए-कोई काम भूलना न चाहिए ॥ १७॥ जयन्तियां और पर्वो श्रादि के महोत्सव सदैव इस धूमधाम के साथ करना चाहिए कि जिन्हें देखकर स्वर्ग के देवता भी मुग्ध हो जायें ॥ १८ ॥ भगवान् की नीच से नीच सेवा भी अंगीकार करना चाहिए और मौका था जाने पर सब प्रकार से सावधान रहना चाहिए ॥ १६ ॥ जो जो कुछ चाहना हो सो सो उसी दम देना चाहिए और सव सेवा अत्यंत प्रेमपूर्वक करना चाहिए ॥ २० ॥ पादप्रक्षालन, स्नान, आचमन, चन्दनाक्षत, वसन, भूपण, श्रासन, जीवन (जल), नाना प्रकार के सुमन (पुष्प ), धूप, दीप और नैवेद्य आदि सब ठीक रखना चाहिये ॥२१॥ शयन के लिए उत्तम स्थान, पीने के लिए सुन्दर शीतल जल; रखना चाहिए; तास्थूल अर्पण करना चाहिए और राग-रागिनी से रंग कर भक्ति के रसाल पदों का गान करना चाहिए ॥ २२ ॥ परिमलद्रव्य, फुलेल, नाना प्रकार का सुगन्धित तेल और बहुत तरह के खानेलायक फल मौजूद रहना चाहिए ॥ २३ ॥ देवस्थान लीपपोत कर स्वच्छ रखना चाहिए, जल-पात्रों में जल भरना चाहिए और वस्त्रे सुन्दर स्वच्छ रखना चाहिए ॥ २४ ॥ सव की फिकर रखना चाहिए, आये हुए का सत्कार करना चाहिए, यही सत्य सातवीं भक्ति है ॥ २५ ॥ नाना प्रकार की स्तुति और करुणा से पूर्ण ऐसे वचन बोलना चाहिए कि जिनसे मनुष्यमात्र का चित्त प्रसन्न हो.॥ २६ ॥ यह सांतवीं दास्यभक्ति यथामति वतलाई गई। जैसे भगवान् की वैसे ही सद्गुरु की भी सेवा करनी चाहिए। यदि प्रत्यक्ष न बन पड़े तो मानस-पूजा की ही तरह यह दास्यभक्ति भी करनी चाहिए ॥२७॥२८॥ आठवाँ समास-सख्यभक्ति । ॥ श्रीराम ॥ अभी सातवीं भक्ति का लक्षण बतलाया गया; अब, सावधान होकर, आठवीं भक्ति सुनो ॥१॥ आठवीं भक्ति 'सख्य' का मुख्य लक्षण.यह है कि परमात्मा को अपना परम मित्र बनाना चाहिए, उसे प्रेम और प्रीति से