पृष्ठ:दासबोध.pdf/१८२

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17337 समास ९.] श्रात्मनिवेदन सकि। नववाँ समासं--आत्मनिवेदन-भक्ति । ॥ श्रीराम ॥ पीछे पाठवीं भचि का वर्णन किया गया ।अब सावधान होकर नवीं भनि सुनिये ॥ १॥ नवी भकि का नाम श्रात्म-निवेदन है । अब इसे स्पष्ट कर के बतलाते हैं ॥ २॥ श्रात्मनिवेदन का लक्षण यह है कि स्वयं अपनेको परमात्मा के अर्पण करना चाहिये । यह बात (यात्मनिवेदन करना) तत्वविचरण करने से मालूम होगी ॥ ३॥ स्वतः अपनेको 'भक्ता' कहना और 'विभक ' रह कर ईश्वर को भजना-यह बात विलक्षण है! १॥४॥ लक्षण होकर विलक्षण, ज्ञान होकर अज्ञान और भक्त होकर विभक्त इसीको कहते हैं ॥५॥ भक्त वही है जो विभता न हो और विभक्त वही है जो भच न हो-इस विरोध-भाव का विचार किये विना कभी सन्तोप नहीं मिल सकता ॥ ६ ॥ इस लिए विचार करना चाहियेः ईश्वर को पहचानना चाहिये: अन्तःकरण में स्वयं अपनेको ढूंढ़ना चा- हिये ॥ ७॥ तत्व का विचार करके जब इसका फैसला किया जाता है, कि "मैं': कौन है, तब साफ मालूम हो जाता है " मैं " कोई चीज नहीं ॥८विवेक से जब यह मालूम हो जाता है कि तत्व तत्वों में मिल जाते हैं, तब 'मैं' कहां बचता है ? यही अात्मनिवेदन है * ॥६॥ यह सद तत्वरूप भासमान है; विवेक से देखने पर सब का निरसन हो जाता है। प्रकृति का निरसन करने से, अर्थात् उसे अलग कर देने से, श्रात्मा रह जाता है-वहां 'मैं' कहां से आया ?॥ १०॥ एक तो मुख्य परमेश्वर है और दूसरी जगत् के आकार में प्रकृति है-अर्थात् माया और ब्रह्म दो तो हैं ही-तीसरा “मैं” चोर बीच में कहां से ले आये ? ॥११॥ इतना यह सिद्ध होने पर भी यह झूठी देह की अहंता बीच में लगती है। परन्तु विचार से देखने पर कुछ भी नहीं है ॥ १२॥ तत्व:विचार से देखने पर जान पड़ता है कि यह पिंड-ब्रह्मांड केवल तत्त्व-रचना. है । नाना प्रकार की व्यक्तियां, तत्वों से रची हुई, विश्व के आकार में फैली हुई है।॥ १३ ॥ साक्षित्व से तत्वों का निरसन हो जाता है और आत्मानुभव

  • प्रकृति-नियम के अनुसार जब यह पंचतत्त्वात्मक शरीर: पंचतत्वों में मिल जाता है

तब ' मैं ' कहां वचता है-अर्थात् मनुष्य, जिसको ' मैं ' कहता है वह तो वचता नहीं; किन्तु इस शरीर के पांचो तत्व, एक एक करके, पाँचो में मिला. देने से जो कुछ वचता है वह आत्मरूप " मैं " है और उसीको पहचानना आत्मनिवेदन है।।