पृष्ठ:दासबोध.pdf/१९

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दासबोध। धर्म की दशा, जानने की भी ज़रूरत है । सारा देश घूम कर उद्धारकों को यह जानना पड़ता है कि, जनसमाज को क्या दशा है और तीयों में जाकर इस बात की जाँच करनी पड़ती है कि, स्वधर्म का हास करनेवाले कौन कौन कारण धर्मप्रचार में विन डालते हैं । समर्थ ने सारे भरतखण्ड का प्रवास, उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक, पैदल ही किया, उनके पास एक फूटी कौड़ी भी न थी । उदरनिर्वाह के हेतु उन्होंने भिक्षावृत्ति स्वीकार की । स्मरण रखना चाहिए कि भिक्षावृति स्वीकार करने में केवल उदरनिर्वाह ही करना उनका मुख्य हेतु न था । भिक्षा की महिमा गाते हुए वे अपने “ दासबोध " में कहते हैं:- भिक्षा म्हणजे निर्भयस्थिती । भिक्षेने प्रगटे महंती ॥ स्वतंत्रता ईश्वरप्राप्ती । भिक्षागुणें ॥ भिक्षा निर्भय स्थिति है, भिक्षा से महंती प्रकट होती है और भिक्षा ही से ईश्वर मिलता है । इतना ही नहीं; उससे 'खतंत्रता' भी मिल सकती है । भिक्षा माँगने का हेतु यदि केवल पेट भरना ही न हो; उनका यह हेतु हो कि, खदेशदशा का ज्ञान प्राप्त किया जाय तो इसके लिए निसन्देह भिक्षावृत्ति से बढ़ कर अन्य कोई अच्छा साधन नहीं हैं। रामदास- स्वामी, अपने अनुभव से, इस विषय पर, दासबोध में एक जगह और कहते हैं। इस पद्य में वे माँगने का उद्देश विलकुल स्पष्ट किये देते हैं:- कुनामें अथवा नगरें । पाहावी घरांची घरे । भिक्षामिस लाहान धोरें । परीक्षून सोडावीं ॥ कुग्राम हो चाहे नगर ( शहर ) हों; घर घर देख डालना चाहिए और भिक्षा के 'मिस' से छोटे बड़े, सब प्रकार के लोगों को, परीक्षा कर डालना चाहिए। ऐसा करने से लोगों के मुख-दुःख मालूम होते हैं। उनके ज्ञान का लाभ अपने को मिलता है और अपने विचार उन पर प्रकट करने का मौका मिलता है। आज कल हमारे देश में भिखारियों की कुछ कमी नहीं है; पर खेद है कि, समर्थ के मत के अनुसार, एक भी भिखारी देश में निकलना कठिन है। अस्तु। नाना प्रकार के ग्रामों, नगरों, वन और पर्वतों में घूमते हुए श्रीरामदासस्वामी पहले काशीजी में पहुँचे । वहाँ गंगास्नान करके, विश्वनाथजी के दर्शन करने लिए वे मन्दिर में में गये । वहाँ कुछ ब्राह्मण रुद्राभिषेक कर रहे थे। समर्थ का वेष, गेरुए रंग की कफनी और सिर पर जटा आदि, देखकर उन ब्राह्मणों ने समझा कि यह कोई ब्राह्मणेतरजाति का वैरागी है। उन्होंने समर्थ को लिंग के पास जाने नहीं दिया । समर्थ ने कहा, "अच्छा है, श्रीरामचन्द्रजी की इच्छा!" इतना कहकर वे जहाँ खड़े थे वही से, श्रीविश्वेश्वर जी को, और सब ब्राह्मणों को, साष्टांग प्रणाम कर वहाँ से लौट पड़े। उनके लौटते ही रुद्राभिषेक करनेवाले ब्राह्मणों को, जिन्होंने मन्दिर में जाने नहीं दिया था, विश्वनाथजी का लिंग न देख पड़ने लगा । इस कारण सब ब्राह्मण बहुत घबराये। परन्तु अन्त में वे समझ गये कि, हो न हो; यह उसी वैरागी का चमत्कार है जिसका हमने अपमान किया है। उसमें से कुछ