पृष्ठ:दासबोध.pdf/१९४

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शिष्य-लक्षण। सकती ॥ १२ ॥ तथापि, यदि किसी नीच जाति के गुरु पर मन जम गया हो तो स्वयं अपने ही को भ्रष्ट करना चाहिए-बहुत लोगों को भ्रष्ट कलना ठीक नहीं है ॥ ६३ ॥ अच्छा, अव यह विचार रहने दो । स्वजाति गुरु चाहिय, नहीं तो भ्रष्टाचार जरूर मचता है । ॥ ६ ॥ जितने कुछ उत्तम गुण हैं वही सद्गुरु के लक्षण हैं। तथापि सद्गुरु की पहचान करने के लिए कुछ गुरुओं का यहां वर्णन किया जाता है ॥ एक याँही गुरु होते हैं; कोई मंत्र देनेवाले गुरु होते हैं; एक यंत्र बतलानेवाले और कोई तांत्रिक गुरु कहलाते हैं; और, लोग किसी किसी को उन्नाद (गुरु) कहते हैं; एक राजगुरु भी होते हैं ॥ ६६ ॥ एक कुल- शुरु होने हैं, एक माना हुअा गुरु होता है, एक विद्या सिखातेवाला गुरु कहलाता है, एक कुविद्या सिखानेवाला भी गुरु है। एक असद्गुरु है, कोई जाति-गुरु है, यह जाति-गुरु दंडकर्ता होता है ॥ ६७ ॥ एक माता गुरु है; एक पिता गुरु है, एक राजा गुरु है; एक देवता गुरु है और एक, लकल कला जाननेवाले को जगद्गुरु कहते हैं ॥ ६८ ॥ इस प्रकार ये सनद गुरु कहे हैं, इन्हें छोड़ कर और भी कई गुरु हैं; उन्हें भी सुन लीजिए॥ ६॥ एक स्वप्नगुरु कहलाता है; एक कर्म की दीक्षा देनेवाला गुरु होता है। कोई प्रतिमा ही को गुरु मानते हैं, और कोई कोई तो स्वयं- गुरु, अर्थात् अपना गुरु अपने ही को बतलाते हैं ! ॥ ७० ॥ जिस जिस जाति का जो जो व्यापार है उस उसके उतने ही गुरु है-यह विस्तार बहुत बड़ा है ॥ ७१ ॥ अस्तु । इस प्रकार बहुत से गुरु है-यह तो नाना प्रकार के मतों का विचार हुना; परन्तु मेक्षिदाता जो सद्गुरु है वह अलग ही है ॥ ७२ ॥ जिसमें सद्विद्या के अनेक गुण हों; और साथ ही साथ दया भी हो उसे सच्चा गुरु समझना चाहिए ॥ ७३ ॥ तीसरा समास-शिष्य-लक्षण । ॥ श्रीराम ॥ पिछले समास में सद्गुरु के लक्षण, विस्तारपूर्वक, कहे गये । अव सावधान होकर सत् शिष्य के लक्षण सुनिये ॥१॥ सद्गुरु के बिना सत् शिष्य का कोई उपयोग नहीं, अथवा यो कहिये, सत् शिष्य के विना सद्- गुरु का बहुत सा परिश्रम व्यर्थ है ॥ २॥ उत्तम और शुद्ध भूमि ढूंढ़ कर