पृष्ठ:दासबोध.pdf/१९५

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दासबोध। [ दशक ५' उसमें सड़ियल बीज बोने से, अथवा उत्तम बीज चट्टान में डालने ले जो हाल होता है, वहीं हाल सत् शिष्य का असत् गुरु के पास और असत् शिष्य का सद्गुरु के पास होता है ॥३॥ उदाहरणार्थ, सत् शिष्य तो सत्पात्र है, परन्तु गुरु उसे तंत्र मंत्र बतलाता है; ऐसी दशा में इहलोक या परलोक कुछ नहीं बनता। अथवा गुरु तो पूर्ण कृपा करता है; परन्तु शिष्य अनाधिकारी है-जैसे भाग्यवान् पुरुप का भिखारी पुन ॥४-५॥ सारांश, दोनों के योग्य हुए बिना काम नहीं चलता-गुरु और शिप्य बेजोड़ होने से परमार्थ नहीं बनता ॥ ६ ॥ जहां सद्गुरु और सच्छिष्य का जोड़ मिल गया, कि बस फिर परिश्रम नहीं पड़ता-अना- यास ही दोनों के हौसले पूरे होते हैं ॥ ७ ॥ अच्छा, अब भूमि भी उत्तम है और वीज भी अच्छा है; पर विना वर्षा के नहीं जमता-इसी प्रकार सच्छिप्य और सद्गुरु मिलने पर भी अध्यात्म-निरूपण बिना काम नहीं चलता ॥८॥ अच्छा, अब खेत बोया गया और उगा भी; परन्तु रखवाली के विना हानि होती है-यही हाल सांधना के विना साधकों का होता है ॥ ॥ सारांश, जब तक फसल हमारे घर में नहीं आ जाती, तब तक सब कुछ करना पड़ता है-किम्बहुना फसल आ जाने पर भी खाली नहीं बैठना चाहिये ॥ १०॥ अर्थात् आत्मज्ञान हो जाने पर भी साधन करना ही चाहिये-जिस प्रकार एक बार बहुत सा खा लेने पर भी सामग्री की जरूरत पड़ती ही है; उसी प्रकार पूर्ण आत्मज्ञान हो जाने पर भी साधन, आगे चल कर, काम देते ही हैं ॥ ११ ॥ इस लिए, साधन, अभ्यास, सद्गुरु, सच्छिप्य, सत् शास्त्र का विचार, सत्कर्म, सद्वासना, सदुपासना, सदाचरण, स्वधर्मनिष्ठा, सत्संग नित्य नेम-ये सब जब एकत्र होते हैं तभी विमल ज्ञान का प्रकाश होता है; अन्यथा जनसमुदाय में पाखंड, जोर से, संचार करता है ॥ १२-१४ ॥ परन्तु इसमें शिष्य का कोई दोष नहीं-सारी कुंजी सद्गुरु के हाथ में है; सद्गुरु नाना प्रकार के यत्न करके सारे दुर्गुण दूर कर सकता है ॥ १५ ॥ सद्गुरु के द्वारा असत् शिष्य सत् शिष्य बन सकता है; परन्तु सच्छिष्य के द्वारा असद्गुरु सद्गुरु नहीं बन सकता; क्योंकि इससे बड़प्पन जाता है-अर्थात् शिष्य के योग से यदि गुरु, सत् गुरु बनाया गया तो 'गुरु' की 'गुरुता' कहां रही ? ॥ १६ ॥ तात्पर्य, सद्गुरु चाहिए, तभी सन्मार्ग मिलता है; अन्यथा पाखंड से सत्यानाश होता है ॥ १७॥ यद्यपि भवसागर से पार करने का पूरा जवा- बदार सद्गुरु ही है; तथापि यहां पर मैं सच्छिष्य के कुछ लक्षण बत- लाता हूं:--॥१८॥