पृष्ठ:दासबोध.pdf/१९७

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दासबोध। [ दशक ५ सद्गुरु-वचनों पर जिसे दृढ़ विश्वास है वही सत् शिष्य है और वही सब से पहले मोक्ष का अधिकारी है ॥ ३८ ॥ जो सद्गुरु के वचनों से संतुष्ट होता है वही सायुज्यमुक्ति को प्राप्त करता है-वह संसार-दुख से कभी दुखित नहीं होता ॥ ३६॥ सद्गुरु (निर्गुण परब्रह्म) की अपेक्षा देवता (सगुण हरिहरादि देवता ) को जो बड़ा समझता है वह अभागी है-वह वैभव और सामर्थ्य के धोखे में पढ़ कर सच्चे वैभव (शाश्वत सुख) से वञ्चित रहता है ॥ ४० ॥ सद्गुरु सत्वरूप है और हरिहरादि देवता लोग तो कल्पान्त में नाश हो जायेंगे, तब उनका सामर्थ्य, जिसके धोखे में पड़ कर सद्गुरु को उनले छोटा समझता है, कहां रहेगा? ॥४१॥ अतएव, सद्गुरु का सामर्थ्य अधिक है। उसके सामने ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इत्यादि कोई चीज नहीं । परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य को यह बात नहीं मालूम होती ॥ ४२ ॥ जो गुरु और देवता की बराबरी करता हो वह शिष्य दुराचारी है-उसके अंतःकरण में भ्रान्ति वैठी है; और वह सिद्धान्त नहीं जानता ॥ ४३ ॥ देवता की भावना मनुष्य-द्वारा ही हुई है और मंत्र से उसमें देवतापन अाया है; परन्तु सद्गुरु की कल्पना ईश्वर से भी नहीं हो सकती ॥ ४४ ॥ इस लिए सद्गुरु, पूर्णरूप से, देवता की अपेक्षा कोटिगुणा बड़ा है । उसका वर्णन करने में वेदों और शास्त्रों में भी झगड़ा मच गया है ॥४५॥ अस्तु । सद्गुरु-पद के सामने दूसरे किसी को भी महत्व नहीं मिल सकता । देवता का सामर्थ्य ही कितना है-वह तो मायाजनित है ॥ ४६ ॥ अहो ! जिस पर सद्गुरु की कृपा हो चुकी है उसके सामने देवताओं की सामर्थ्य क्या चल सकती है? उसने ज्ञानबल से वैभव को तिनके के समान तुच्छ बना दिया है ! ॥४७॥ सद्गुरु-कृपा के ही बल से-अपरोक्ष ज्ञान के होने ही से-मायासहित सारा ब्रह्मांड तुच्छ मालूम होता है ।। ४८ ॥ ऐसा सत् शिष्य का महत्व है । वह सद्गुरु वचनों में दृढ़भाव रखता है और इसी कारण वह स्वयं देवाधि देव (सद्गुरु) बन जाता है ॥ ४६॥ ऐसे सत् शिष्यों का अन्तः- करण, पहले, संसार-दुःखों के पश्चात्ताप से तप कर शुद्ध हो जाता है- इसके बाद वे सद्गुरु के उपदेशामृत से अक्षय शान्ति प्राप्त करते हैं - ॥ ५० ॥ सद्गुरु के बतलाये हुए मार्ग पर चलते हुए, चाहे सारा ब्रह्मांड भी क्यों न उसके विरुद्ध हो जाय; तथापि, उसकी शुद्ध गुरुभक्ति में कुछ भी फर्क नहीं होता ॥ ५१ ॥ सत् शिष्य सद्गुरु की शरण कभी नहीं छोड़ते और सदाचरणी बन कर ईश्वर के तई पवित्र होते हैं ॥ ५२ ॥