पृष्ठ:दासबोध.pdf/१९८

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समास शिष्य-लक्षण। जिनके अन्तःकरण में उपर्युक्त सद्गुरु-विषयक सद्भाव है वे ही मुत्ति के भागी हैं-शन्य मायिक-वेषधारियों को असत् शिष्य जानना चाहिए ॥ ५३॥ जिन्हें विषयों में सुख जान पड़ता है और परमार्थ संपादन करना केवल लोकाचार जान पड़ता है, ऐसे पढ़तमूर्ख नसच्छिप्य देखादेखी से सद्गुरु के शरण जाते हैं ॥५४॥ परन्तु ज्योंही विषय-सम्बन्धी वृत्ति अनि- वार्य हो जाती है, त्यौही वे दृढ़तापूर्वक गृहस्थी को पकड़ लेते हैं और उनकी परमार्थ-चर्चा मलीन हो जाती है ॥५५॥ परमार्थ का बहाना ले कर प्रपंच में प्रेम रखते हैं और कुटुम्ब के भारवाही बन कर सत्यानाश होते हैं ॥ ५६ ॥ प्रपंच में आनन्द मान कर परमार्थ का कौतूहल (फार्स) दिखाते हैं तथा भ्रान्त, मूढ़ और मतिमन्द बन कर अनेक कामनाओं में लुब्ध होते हैं ॥ ५७ ॥ जिस प्रकार, यदि सुअर को सुगंधित लेप से पूजा की जाय, या भैंसे के चन्दन मला जाय, तो वह व्यर्थ है उसी प्रकार विषयी पुरुष को ब्रह्मज्ञान या विवेक बतलाना भी व्यर्थ है ॥ ५८ ॥ जैसे घूरे पर लोटनेवाले गधे के लिए परिमल-सुवास का आनन्द और अंधेरे में भागनेवाले उन के लिए हंसों की पंगति है, वैसे ही विषय-द्वार की प्रतीक्षा करनेवाले के लिए भगवद्भक्ति और सत्संग है! ये लोग तो अधोगति ही को प्राप्त होते हैं ॥६०॥ जैसे दांत ऊपर को निकाल करके कुत्ता हाड़ चबाता है, उसी प्रकार विषयी पुरुष विषयभोग में फंसा रहता है ॥६॥ उसी कुत्ते को उत्तम भोजन देने, अथवा वन्दर को सुन्दर सिंहा- सन पर विठाने से जो हाल होता है वही हाल विषयासक्त पुरुप को ज्ञानो- पदेश करने से होता है॥६२॥ गधे रखते रखते जिसका जन्म गया है वह (धोबी या कुम्हार ) पंडितों के बीच में जैसे प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता उसी प्रकार विपयासक पुरुष को परमार्थ नहीं मिल सकता ॥ ६३ ॥ जैसे कोई डोम-कौवा राजहंसों के मेले में रह कर अपनेको हंस बतलावे और उसका ध्यान मैले की ओर हो, वैसे ही विषयी पुरुष सज्जनों के वीच में रह कर अपनेको सज्जन कहलाता है और मन विषयरूपी मेले में रखता है ! ॥ ६४-६५ ॥ बगल में स्त्री को लेकर जिस प्रकार कोई कहता हो कि मुझे संन्यासी बनाओ उसी प्रकार विषय में फंसा हुआ पुरुष ज्ञान बड़बड़ाता है ॥ ६६ ॥ अस्तु । ऐसे पढ़तमूर्ख अद्वैत-सुख (वह मुख जिसमें द्वैत नहीं रहता-ब्रह्मानन्द) क्या जाने ? ये नारकी प्राणी जानबूझ कर नरक में गिरते ॥ ६७ ॥ वेश्या की सेवा करनेवाला जैसे उपदेशक नहीं हो सकता, वैसे ही विषय-सेवक पुरुष, भक्तराज कैसे कहा जा सकता है ? ॥ ६८ ॥ अतएव, विषयी पुरुषों के लिए शान क्या है ?