पृष्ठ:दासबोध.pdf/१९९

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दासबोध। [ दशक. ५. वे तो वाचाल बन कर केवल शाब्दिक बड़बड़ करने में ही फंसे रहते हैं 1.६६ ॥ ऐसे शिष्यों को परम नष्ट, अत्यन्त खुद्र, हीन, अविवेकी, दुष्ट, और खराव समझना चाहिए ॥ ७० ॥ ऐसे पापपूर्ण, महा अपराधी और अत्यन्त कठोर शिष्यों के लिए भी पश्चात्ताप का एक अच्छा प्रायश्चित्त है ॥ ७१ ॥ इनको फिर से सद्गुरु के शरण में जाना चाहिए-उन्हें प्रसन्न करना चाहिए और उनकी कृपा सम्पादन करके फिर शुद्ध होना चाहिए ॥ ७२ ॥ क्योंकि जिससे स्वामिद्रोह हो जाता है वह यावच्चन्द्र (जब तक चन्द्र है ) नर्क में पड़ा रहता है। स्वामी को प्रसन्न किये बिना उसे दूसरा उपाय ही नहीं है ॥ ७३ ॥ अस्तु । सिर्फ स्मशानवैराग्य * में आकर सद्गुरु के पैरों पर गिरने से, ज्या ज्ञान थोड़े ही ठहर सकता है ? ॥७४ ॥ मन में वनावटी भाव लाकर गुरु का मंत्र लेता है और उस मंत्र के कारण दो दिन के लिए शिप्य वन जाता है ! ॥ ७५ ॥ इसी प्रकार बहुत से गुरू कर लेता है; पाखंड शब्द सीख लेता है और मुहँजोर, निर्लज, और पाखंडी बन जाता है ॥ ७६ ॥ कभी रोता है, कभी गिरता पड़ता है; घड़ी भर के लिए वैराग्य श्रा जाता है और तुरन्त ही ज्ञातापन का घमंड आ जाता है ॥ ७७ ॥ घड़ी- भर के लिए मन में विश्वास लाता है; उसी दम, दूसरी घड़ी में, गुर- गुराता है-इस प्रकार पागल की तरह नाना ढंग रचता है ॥ ७८ ॥ काम, क्रोध, मद, मत्सर, लोभ, मोह, अभिमान, कपट, तिरस्कार, आदि अनेक विकार हृदय में छाये हैं ॥ ७६ ॥ अहंकार और शरीर-सम्बन्धी प्रेम अनाचार और विषयी संगः संसार और प्रपंच-विषयक उद्वेग, इत्यादि, • अन्तःकरण में वास करते हैं ॥ ८० ॥ दीर्घसूत्री, कृतघ्न, पापी, कुकर्मी, कुतर्की, विकल्पी, अभक्त, अभाविक, शीघ्रकोपी, निष्ठुर, परघातक, हृदय- शून्य (कठोर या निर्दयी ), आलसी, अविवेकी, अविश्वासी, अधीर, अविचारी, और संदेही है; तथा आशा, ममता, तृष्णा, कल्पना, कुबुद्धि, दुर्वृत्ति, दुर्वासना, बुद्धिहीनता, विषयकामना, आदि दुर्गुण हृदय में वाल करते हैं ॥ ८१ ॥८३ ॥ इच्छा, डाह, और तिरस्कार के वश होकर दूसरे की निन्दा करने में प्रवृत्त होता है और जानबूझ कर देहाभिमान आकर मतवाला बनता ॥ ५४॥ भूख प्यास रोक नहीं सकता; नींद को सहसा सम्हाल नहीं सकता और कुटुम्ब-चिन्ता कभी जाती ही नहीं,

  • स्मशान में, वहां की दशा देख कर, सब को कुछ न कुछ, क्षणिक, वैराग्य आ

. जाता है।