पृष्ठ:दासबोध.pdf/२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रस्तावना। ९ ब्राह्मण दौड़ते हुए बाहर गये और समर्थ से प्रार्थना करके उन्हें मन्दिर में ले आये। सब ब्राह्मणों ने पश्चात्ताप युक्त श्रीविश्वनाथ की प्रार्थना की और रामदासस्वामी से क्षमा माँगी। थोड़ी देर के बाद फिर उन्हें लिंग यथावत् देख पड़ने लगा । समर्थ ने कुछ दिन तक काशी में निवास करके नाना प्रकार का अनुभव प्राप्त किया। वहीं से उन्होंने प्रयाग और गया की भी यात्रा की । काशीजी में एक घाट का नाम हनुमानघाट होने पर भी उसमें हनुमानजी की मूर्ति न थी; इस लिए उन्होंने वहाँ हनुमानजी की मूर्ति स्थापित की । काशी से चलकर समर्थ अपने परम प्रिय इष्ट देव श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्याजी में गये । वहाँ सरयू नदी में स्नान करके श्रीराम और हनुमान आदि देवताओं के दर्शन किये। कुछ दिन वहाँ रह कर अयोध्या-माहात्म्य का श्रवण किया। इसके बाद मथुरा, वृन्दावन, गोकुल आदि तीर्थक्षेत्रों में स्नान, देवदर्शन और कुछ दिन रह कर संतसमागम, आदि करते हुए वे द्वारकाजी की ओर पधारे । द्वारका में पहुँच कर श्रीनाथजी के दर्शन किये, तीर्थ का विधि-विधान किया । पिंडार्क, प्रभास आदि क्षेत्रों में गये और वहाँ भी तीर्थ-विधि की। समर्थ ने अपने दासबोध में लिखा है कि चाहे जैसा महंत हो, उसे आचार की रक्षा अवश्य करनी चाहिए। यदि वह स्वयं आचार-भ्रष्ट है और दूसरों को आचार की शिक्षा देता है तो वह महन्त कैसा ? वे कहते हैं कि तीर्थों में जाकर मुख्य देव को पहचानना चाहिए। जो लोग तीर्थ करते हैं; पर अन्तरात्मा को नहीं पहचानते—उसमें श्रद्धा नहीं रखते-उनके लिए तीर्थों में क्या रक्खा है ? वही पानी और पत्थर की भेट है। ऐसे लोग व्यर्थ के लिए तीर्थ करके कष्ट उठाते हैं ! द्वारकाजी में समर्थ ने श्रीराम की मूर्ति स्थापित की और प्रभास क्षेत्र में, रामदासी सम्प्रदाय का मठ स्थापन करके, अनेक लोगों को भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। प्रभास क्षेत्र से चलकर, पंजाब के प्राम-नगरों में घूमते हुए, श्रीरामदासस्वामी श्रीनगर पहुँचे । वहाँ नानकपंथी साधुओं से भेट हुई। वे साधु अध्यात्मज्ञान में परम निपुण थे। जब कोई साधु उनके यहाँ आता तब वे वेदान्त विषयक प्रश्न उससे अवश्य पूछते थे। परन्तु जो साधु उनकी शंकाओं का समाधान न कर पाता था उसका वे उपहास कभी न करते थे। समर्थ का आगमन सुनकर वे उनके दर्शन के लिए 'और भक्तिपूर्वक कुछ अध्यात्म प्रश्न उनसे पूछे । जिन शंकाओं का उत्तर बड़े बड़े अनुभवी साधु न दे सकते थे उनको श्रीसमर्थ ने, बात की वात में, हल कर दिया। नानकपंथी साधुओं को उनका अध्यात्मनिरूपण सुनकर बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने रामदासस्वामी को, बड़े आदर के साथ, एक मास तक अपने यहाँ रख लिया । जव समर्थ वहाँ से विदा होने लगे तब उन सिक्ख-गुरुओं ने समर्थ से मंत्रदान के लिए प्रार्थना की। समर्थ ने “आप लोगों के गुरु वही नानकजी हैं जिन्होंने मुसल्मानों से भी राम राम कह- लाया है ? वह उपदेश क्या तुम्हारे लिए कम है ? नानकपंथ की सार्थकता करो !" कहा,