पृष्ठ:दासबोध.pdf/२०५

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१२४ दासबोध। है २३ ॥ अनेक प्रकार के रूप-रस-गंधों की परीक्षा करना भी कोई सच्चा ज्ञान नहीं है ॥ २४ ॥ सृष्टिज्ञान, भूमितिज्ञान और पदार्थविज्ञान भी कोई सञ्चा ज्ञान नहीं है ॥ २५॥ परिमित भाषण करना, तत्काल ही उत्तर देना (हाज़िर-जवाबी ) और शीघ्र कविता करना (आशुकवि होना ) भी ज्ञान नहीं है ॥२६॥ नेत्र पल्लवी, नादकला; करपल्लवी, भेदकला ( भेद की बात बतलाना ) और स्वरपल्लवी आदि संकेत-कला (संकेत के कौशल.) जानना भी सच्चा ज्ञान नहीं है ॥ २७ ॥ काव्यकुशलता और संगीत कला का ज्ञान; गीत-प्रबंध और नृत्यकला का ज्ञान; सभा चातुरी और शब्द- सौन्दर्य का ज्ञान, इत्यादि कोई सच्चे ज्ञान नहीं हैं ॥ २८॥ वाग्विलास (वाणीसौन्दर्य), मोहनकला (मोह लेने या वश में करने की युक्ति); रम्य और रसाल गायनकला ( गानसौन्दर्य ); हास्य, विनोद और काम- कला (कामकलोल की युक्ति)-यह ज्ञान नहीं ॥२६॥ नाना प्रकार के कौशल, चित्रकला, वाद्यकला, संगीत की युक्ति और नाना प्रकार की विचित्र कलाओं की भी सच्चे ज्ञान में गिनती नहीं है ॥ ३० ॥ चौंसठ कलात्रों से लेकर अन्य जितनी नाना प्रकार की कला है वे सब जानना, चौदह विद्याएं और सकल सिद्धियां जानना भी कोई ज्ञान नहीं है ॥३१॥ अस्तु । चाहे कोई सकल कलाओं में प्रवीण हो और संपूर्ण विद्याओं से परिपूर्ण (संपन्न ) हो, तो भी यह केवल कुशलता है-इसे 'ज्ञान' कभी नहीं कह सकते ॥ ३२॥ यह सब ज्ञान हुआ-सा भास (मालुम ) होता है; पर मुख्य ज्ञान, सो दूसरा ही है-वहां ( उस मुख्य ज्ञान के तई ) प्रकृति (माया) का संसर्ग विलकुल नहीं है ॥ ३३ ॥ दूसरे के जी की बात जान लेना सञ्चा ज्ञान जान पड़ता है; परन्तु यह आत्मज्ञान का लक्षण नहीं है ॥ ३४ ॥ एक बहुत अच्छा महानुभाव मानसपूजा करते करते बीच में कुछ भूल गया; इतने में किसी एक ने अन्तर्ज्ञान से यह भूल जान कर उस महानुभाव से ललकार कर कहा कि, “ ऐसा नहीं है; आप यहां भूल गये " ऐसी भीतर की दशा जाननेवाले को लोग परमज्ञाता कहते हैं, पर जिस ज्ञान से मोक्षप्राप्ति होती है, सो ज्ञान यह नहीं है ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ बहुत प्रकार के ज्ञान हैं; जो बतलाये नहीं जा सकते; पर जिससे सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है वह ज्ञान दूसरा ही है ॥३७॥ इस पर शिष्य पूछता है कि, महाराज ! तो फिर वह कौनसा ज्ञान है कि जिसके द्वारा परम शान्ति प्राप्त होती है ? उसे विस्तारपूर्वक, वतलाइये" ॥ ३८ ॥ अच्छा, वह शुद्ध ज्ञान अंगले समास में बतलाते हैं। ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ ३६॥