पृष्ठ:दासबोध.pdf/२०७

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दासबोध। [ दशक ५ जिनकी वह साक्षी है)-अतएव तुर्यावस्था का ज्ञान शुद्ध ज्ञान नहीं है- शुद्ध ज्ञान कुछ और ही है ॥ ६ ॥ अच्छा, अब शुद्ध ज्ञान का लक्षण सु- निये:-"हम शुद्ध स्वरूप ही है"--इसका अनुभव होना ही शुद्ध ज्ञान है। ॥ १० ॥ महावाक्य (तत्त्वमसिः तत् + त्वम् + असिः वह (ब्रह्म ) तू है) का मंत्र अच्छा है; परन्तु इसका जप नहीं कहा गया; इस वाक्य का तो साधक को विचार ही करना चाहिए ॥ ११ ॥ यह महावाक्य कुल मंत्रों का सार है; पर उसका विचार ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसके जप से अज्ञानान्धकार नहीं मिट सकता ॥ १२ ॥ यदि इस महावाक्य का अर्थ लिया जाय तो "हम स्वयं ब्रह्म ही है"। इस लिए, उसका जप करने से, व्यर्थ परिश्रम के सिवाय, और कोई लाभ नहीं होता॥१३॥ इस महावाक्य का विवरण करना ही ज्ञान का मुख्य लक्षण है । उसके शुद्ध लक्ष्य-अंश से जान पड़ता है कि हम ब्रह्मस्वरूप ही हैं ॥ १४ ॥ अपने को अपना मिलना (अर्थात् यह मालूम होना कि मैं कौन हूं-श्रात्मस्वरूप की पहचान होना) यह ज्ञान परम दुर्लभ है। यह शान आदि अंत में स्वयंभु-स्वरूप ही है॥१५॥ जहां से यह सब कुछ प्रगट होता है और जिसमें यह सव लीन होता है- वह ज्ञान होने पर वन्धन की भ्रांति मिटती है ॥१६॥ जिसके मतान्तर निर्बल हो जाते हैं और अति सूक्ष्म विचार से देखने पर उन सब में ऐक्य जान पड़ता है ॥ १७ ॥ जो इस चराचर का मूल है और जो निर्मल तथा शुद्धस्वरूप है, उसीका नाम, वेदान्तमत से, 'शुद्ध ज्ञान है ॥ १८ ॥ अपना मूलस्थान ढूँढ़ने से अज्ञान सहज ही में उड़ जाता है- इसीका नाम है मोक्ष देनेवाला ब्रह्मज्ञान ॥ १६ ॥ अपनेको पहचानते पह- चानते सर्वज्ञता प्राप्त होती है, और इससे एकदेशीयता बिलकुल जाती रहती है ॥ २०॥ यह हेतु रख कर देखने से, कि 'मैं कौन हूं,' यह जान पड़ता है कि “ मैं निश्चय करके देहातीत स्वरूप ही हूं" ॥ २१ ॥ अस्तु । प्राचीन काल में इसी ज्ञान से अनेक महापुरुष मुक्ता हो चुके हैं ॥ २२ ॥ व्यास, वसिष्ठ, शुक, नारद, जनक, आदि महाज्ञानी इसी ज्ञान से तर गये ॥ २३ ॥ वामदेव, वाल्मीकि, अत्रि, और शौनक आदि ऋपी- श्वर इसी ज्ञान से, वेदान्त का विचार करके, परमात्मा को पा गये ॥२४॥ सनकादिक ऋषि, आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, इत्यादि अनेक ये सब मत-

  • 'हम' मायने 'अहं'; और 'शुद्ध स्वरूप' मायने 'ब्रह्म'-अर्थात् “ अहं ब्रह्म "-यही

'हम शुद्ध स्वरूप हैं" और इसीका अनुभव होना “ शुद्ध ज्ञान " है !