पृष्ठ:दासबोध.pdf/२०८

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गद्ध ज्ञान का निरूपण । १२७ महात्मा पन्नी शुद्ध शान से मुक गये ॥ २५ ॥ सिद्ध, मुनि, महानुभाव, शादि नदों का अन्तर्भाव वही . शुद्ध मान है और उसीके मुख से लहादेवजी सुना डोलते रहते हैं। २६॥ वह वेदशास्त्रों का सार है। यह गप्रतीति और यात्मप्रतीति (श्रा अनुभव ) का विचार है और उसकी प्रानि भाविकों को भाग्य के अनुसार होती है ॥ २७ ॥ साधु, संत और लजन, जिसके द्वारा भूत, भविन्य, तथा वर्तमान जानते हैं, उस शान से भी अधिश गुह्य ( गौप्य ) वह आत्मज्ञान है ॥ २८ ॥ तीर्थ, व्रत, तप, दान, धूमपान (अपने को उलटा टांग कर नीचे किया हुया घुयां पीना), पंचाग्नि (बारां ओर से अग्निताप और ऊपर से मूर्यताप से तपने का तप) और गौरांजन (भगवान के लिए अपने को अग्नि से जलाना ) से वह नहीं प्रात होता ॥ २६ ॥ सकल साधनों का फल वही है, वह सम्पूर्ण ज्ञानों का शिरोमणि ई और उससे संशय समूल नाश हो जाता है ॥ ३० ॥ छप्पन भाषा और उनके सब अन्यों से लेकर वेदान्त तक- सब का वह एक दी गदन अर्थ है ॥ ३१ ॥ वह पुराणों से नहीं जाना जाता; चेद उनका वर्णन करते करते थक गये; परन्तु श्रीगुरुकृपा से, श्रव, इसी करण, मैं वही बतलाताई ॥ ३२ ॥ यद्यपि संस्कृत और मराठी आदि ग्रंथों में मेरी कुछ भी गति नहीं है। परन्तु मेरे हृदय में कृपामूर्ति सद्गुरु स्वामी आ विराजे हैं: अतएव, अब मुझे संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थों की कोई जरूरत नहीं है ॥ ३३-३४ ॥ वेदाभ्यास और सहन्य-श्रवण इत्यादि किसी प्रकार का भी परिश्रम या प्रयत्न न करने पर भी, केवल सद्गुरु कृपा से, सब कुछ सहज है॥३५॥ मराठी, आदि सब भाषाओं के कुल ग्रन्थों में संस्कृत-ग्रंथ श्रेष्ठ हैं; सं- स्कृत अन्यों में भी वेदान्त सर्वश्रेष्ठ है ॥ ३६॥ क्योंकि वेदान्त में वेदों का सम्पूर्ण रहस्य श्रागया है ॥ ३७ ॥ उस वेदान्त का भी मथितार्थ (मय कर निकाला गया अर्थ) जो अत्यन्त गहन परमार्थ है वह अब सुनिये ॥ ३८॥ अहो! गहन से भी जो गहन है वह सद्गुरु का वचन है-सद्गुरु वचन से अवश्य शान्ति मिलती है ॥ ३६॥ सद्गुरुवचन ही चेदान्त है, सद्गुरुवचन ही सिद्धान्त है और सद्गुरुवचन ही प्रत्यक्ष आत्मानुभव है ॥४०॥ जो अत्यंत गहन है, जो मेरे स्वामी का बचन है, जिससे मुझे परम शान्ति मिली है। जो मेरे हृदय का गुह्य है, वही मैं अब, इसी क्षण, बतलाता हूं-मेरी ओर ध्यान देना चाहिए ॥४१-४३ ॥ अहं ब्रह्मास्मि" यह चेद ( यजुर्वेद ) का महावाक्य है। इसका अर्थ अतर्क- नीय है । उससे गुरुशिष्य का ऐक्य होता है ॥ ४४ ॥ इस महावाक्य का 56