पृष्ठ:दासबोध.pdf/२११

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१३० दासबोध। [ दशक ५ . योगी, बैरागी, संन्यासी, इत्यादि जिन सत्पुरुषों से यह संसार सधा हुआ है वे कोई भी बद्ध पुरुप की दृष्टि में नहीं पाते ॥ ७ ॥ कर्म-अकर्म, धर्म-अधर्म, और सुगम परमार्थ-पंथ, वह नहीं जानता ॥८॥सत् शास्त्र, सत्सं- गति, सत्पात्र और पवित्र सन्मार्ग भी उसे नहीं देख पड़ता ॥ ६ ॥ सारा- सार का विचार, स्वधर्म का आचार और परोपकार या दान-पुण्य नहीं जानता ॥ १०॥ हृदय में भूतदया नहीं होती, शरीर पवित्र नहीं रहता और मनुष्यों को प्रसन्न करने के लिए, मृदु-वचन भी नहीं बोलता ॥११॥ बद्ध पुरुप भत्तिा, ज्ञान, वैराग्य, ध्यान, मोक्ष और साधन कुछ नहीं जानता ॥१२॥ वह निश्चयात्मक देवता नहीं जानता; संत का विवेक नहीं जानता और माया के कौतुक को नहीं समझता ॥ १३ ॥ उसे परमार्थ की पहचान नहीं मालूम होती है; वह अध्यात्मनिरूपण नहीं जानता और न स्वयं अपने को जानता ॥ १४॥ उसे जीव के जन्म का कारण नहीं मालूम होता; वह साधन का फल नहीं जानता और उसे यथार्थ सत्य का ज्ञान नहीं होता ॥ १५॥ उसे यह नहीं मालम कि, जिसमें वह खुद बँधा है, वह बन्धन कैसा है; उसे मुक्ति का लक्षण नहीं मालूम होता है और न उसे विलक्षण वस्तु (ब्रह्म) का ज्ञान होता है ॥ १६ ॥ शास्त्र का अर्थ बतलाने पर वह नहीं समझता; उसे अपना मुख्य स्वार्थ नहीं मालूम होता और वह यह नहीं जानता कि मैं संकल्प से बँधा हुआ हूं ॥ १७ ॥ आत्मज्ञान का न होना बद्ध का मुख्य लक्षण है। वह तीर्थ, व्रत, दान, पुण्य, कुछ नहीं जानता ॥ १८ ॥ उसमें दया, करुणा, विनती, मैत्री, शान्ति, क्षमा, श्रादि गुण नहीं होते ॥ १६॥ जिसके पास ज्ञान ही नहीं है उसमें ज्ञान के लक्षण कहां से आवेंगे ? जिसमें कुलक्षण ही कुलक्षण भरे हैं वह बद्ध है ॥ २० ॥ नाना प्रकार के पाप करने में उसे परम संतोप जान पड़ता है और वह मूर्खता का हौसला रखता है ॥ २१ ॥ जिस पुरुप में काम, क्रोध, गर्व, मद, द्वंद, खेद, आदि अवगुण अधिकता से वास करते हो उसे बद्ध जानना चाहिए ॥ २२ ॥ दर्प, दंभ, विषय, लोभ, कर्कशता और अशुभता जिस पुरुप में विशेषता के साथ हों उसे बद्ध समझना चाहिए ॥ २३॥ व्यभिचार (कामासक्ति), मत्सर, असूया ( परगुणेषु दोषा- विष्करणम् ) तिरस्कार, पाप, विकार, आदि अवगुणों ने जिसे घेर लिया हो वह बद्ध है ॥ २४ ॥ बद्ध पुरुष अभिमान, अकड़, अहंकार, व्यग्रता . और कुकर्मों की खानि होता है ॥ २५ ॥ कपट, वाद-विवाद, कुतर्क, भेद, क्रूरता, निर्दयता, आदि दुर्गुण. उसमें अधिक होते हैं ॥२६ ॥ निन्दा,