पृष्ठ:दासबोध.pdf/२१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१३४ दासबोध। [दशक ५ ॥ २७ ॥ मैं चांडाल, दुराचारी, खल और महापापी हूं ! ॥ २६ ॥ मैं अ- भक्त दुर्जन हूं, मैं होनों से भी हीन हूं , मैं पत्थर ही पैदा हुया ! ॥ २६ ॥ मैं दुरभिमानी हूं, मैं अत्यन्त क्रोधी हूं, मुझमें कितने दुर्व्यसन भरे हैं ! ॥ ३० ॥ मैं आलसी और सुहँचोर हूं; कपटी और कातर हूं और अवि- चारी तथा मूर्ख हूं ! ॥ ३१ ॥ मैं निकम्मा और वकवादी हूं; पाखंडी और मुहँजोर हूं तथा कुबुद्ध और कुटिल हूं! ॥ ३२ ॥ मैं बिलकुल ही अज्ञान हूं, मैं सब से हीन हूं और सुझमें न जाने कितने कुलक्षण हैं ॥३३॥ मैं अनाधिकारी हूं; मलीन और अघोरी हूं; और अत्यन्त नीच हूं! ॥३४॥ मैं कैसा अपस्वार्थी हूं; में बड़ा अनर्थी हूं और परमार्थ की शुझमें गन्ध भी नहीं है ॥ ३५ ॥ मैं नवगुणों को राशि हूं; और व्यर्थ के लिए जन्म. लेकर भूमि का भार हुआ हूं!" ॥ ३६ ॥ इस प्रकार वह अपनी खूब निन्दा करता है; गृहस्थी से विलकुल. ही ऊब जाता है और सत्संग के लिए उत्सुक होता है ॥ ३७॥ वह अनेक तीर्थ करता है; शम, दम, श्रादि साधन करता है; अनेक ग्रन्थ अच्छी तरहं पढ़ता है-परन्तु इन बातों से उसको समाधान नहीं होता- ये सब उसको सन्देहयुक्त . जान पड़ते हैं और कहता है कि अब सन्तों के शरण में जाना चाहिए ॥ ३८-३६ ॥ वह देहाभिमान, कुला- भिमान, द्रव्याभिमान और नाना प्रकार के अभिमान छोड़ कर सन्त- चरणों में अनन्य होता है ॥ ४०॥ वह अहंता छोड़ कर नाना प्रकार से अपनी निन्दा करता है और मोक्ष की इच्छा करता है ॥ ४१ ॥ वह अपने बड़प्पन पर लजाता है, परमार्थ के लिए कटित होता है और उसका संत-चरणों में विश्वास होता है ॥ ४२ ॥ वह गृह स्वार्थ या प्रपंच छोड़ कर परमार्थ में उत्साह रखता है और यह कहता है कि "अब मैं सज्जनों का दास होऊंगा" ॥ ४३ ॥ उपर्युक्त लक्षणों से युक्त पुरुष को मुमुक्ष जानना चाहिए । अब आगे साधक के लक्षण कहते हैं ॥४४॥ नववाँ समास-साधक-लक्षण । ॥ श्रीराम ॥ पिछले समास में गुमुक्षु के लक्षण संक्षेप से बतलाये, अब सावधान होकर साधक के लक्षण श्रवण कीजिए ॥ १ ॥ अपने सब पिछले