पृष्ठ:दासबोध.pdf/२२

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.. प्रस्तावना। » अनूठे दलों का प्रतिबिम्ब इस ग्रन्थ में मिलता है। उनकायों के सामने के लिए गहां स्थान नहीं है। पंचवटी में आकर समर्थ ने पंचगंगा का मान किया और श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन करतः प्रार्थना की कि, “ चारह वर्ष की तीर्थयात्रा करके में आपकी कृपा से अनेक स्थानों में देवताओं के दर्शन किये, तीर्थ-सलिल से मान किये और नाना प्रकार के विधि-विधान किये-इन कमी का फलस्वरूप पुण्य में आज आएक चाणों में अर्पण करता हूँ। विचार करने की बात है कि, समर्थ कितने निस्पृह महन्त थे, ये केंग कर्मयोगी । निाकामकर्म करने का इससे अच्छा और कौन उदाहरण मिल सकता है ? समर्थ अपने लिए कुछ भी नहीं चाहते थे। वे जानते थे कि हम जो कुछ युग या भला काम करने हैं वह अपने लिए नहीं-उस ईश्वर के लिए करते हैं-उन आत्मागम के लिए करते हैं; और इसी लिए उन्होंने अपने सम्पूर्ण धर्म-कर्मों का पुण्य आज राम के पवित्र नगण में अर्पण कर दिया । श्रीकृष्ण परमात्मा अर्जुन से कहते है:- यत्करोषि यदनासि यज्जुहोपि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौतेय तत्कुरुप्य मदर्पणम् ॥ २७ ॥ भ० गी० अ०९, है कोतय ! तुम जो भोजन करो, जो हवन करो, जो दान करो, जो नए कोः ( कहां तक कहें ) जो कुछ करो, सब मुझे अर्पण करो । ठीक यही थान समर्थ के आचरण में पाई जाती है। पंचवटी से निकल कर समर्थ, पैठण गांव में एकनाथ महाराज की समाधि नः दर्शन करते हुए, गोदावरीप्रदक्षिणा के लिए चले । मार्ग में जब वे गोदावरी नदी के किनारे अपनी जन्मभूमि जाँच के निकट पहुँने तब उन्हें अपनी माता और श्रेष्ठ बन्धु का स्मरण आया । इधर उनकी माता अपने प्रिय पुत्र नारायण के वियोग से बिलकुल व्याकुल हो गई थी। शोक के कारण गोते रोते उनके नेत्र भी चल बसे थे। ऐसी दशा में उन्हें अपने नारायण का निजभ्याम सा लग गया था। चौवीस वो के बाद, समर्थ, भ्रमण करते हुए, अपने गाँव में पहुंचे और हनुमान जी के दर्शन करके, अपने घर के प्रथम चड़े दरवाजे से आगे बढ़ कर, उन्होंने जय जय श्रीरघुवीर समर्थ " कह कर भिक्षा माँगी । उनकी माता ने, जो मामने दालान में बैठी हुई थी, अपनी बह (श्रेष्ठ की पत्नी) को आज्ञा दी कि वैरागी को भिक्षा दे आओ। यह सुन कर समर्थ, आगे बढ़ कर, अपनी माता से बोले, “ अन्य वैरागियों की तरह भिक्षा लेकर लौट जानेवाला आज का वैरागी नहीं है।" दूसरी बार समर्थ के बोलने पर माता ने उनका शब्द पहचान लिया और शीघ्र ही उठ कर कहने लगी, "बगा नारायण आया है ? » इतना सुनते ही रामदास ie