पृष्ठ:दासबोध.pdf/२२१

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दासबोध। [ दशक ५ मान है। संशय से, कुछ समाधान नहीं मिल सकता ॥ २६ ॥ इस लिए, निस्सन्देह, संशयरहित ज्ञान और निश्चययुक्त समाधान ही, सिद्ध का लक्षण है ॥ २७ ॥ इस पर श्रोता प्रश्न करता है कि, "कौन निश्चय किया जाय और निश्चय का मुख्य लक्षण क्या है ? मुझे बतलाइये" ॥२८॥ अच्छा, सुनिये । यह जानना, कि मुख्य देवता कैसा है, निश्चय का ठीक लक्षण है । इसके सिवाय, नाना प्रकार के देवताओं की गड़बड़ कभी भ- चाना ही न चाहिए ! ॥२६॥ जिसने चराचर को रचा है उसका विचार करना चाहिए और शुद्ध विवेक-द्वारा परमेश्वर को पहचानना चाहिए ॥ ३० ॥ मुख्य देवता कौन है, भक्त का लक्षण क्या है, सो जानना चा- हिए और असत्य छोड़ कर सत्य का ग्रहण करना चाहिए ॥३१॥ पहले अपने सत्य देव को पहचानना चाहिए; फिर यह देखना चाहिए कि 'मैं कौन हूं'। सर्वसंग-परित्याग करके वस्तुरूप (ब्रह्मस्वरूप) होकर रहना चाहिए ॥३२॥ बन्धन का संशय तोड़ना चाहिए; मोक्ष का निश्चय करना चाहिए और पंचभूतों का व्यतिरेक (विच्छेद ) करके यह देखना चाहिए कि उनका अन्वय (मिश्रण) कैसे होता है ॥ ३३ ॥ पूर्वपक्ष (विचार करने की पहलू) को सिद्धान्त (निश्चय की पहलू ) से मिला कर प्रकृति का मूल देखना चाहिए-इसके बाद शान्ति के साथ परमात्मा का निश्चय प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ संशय, देहाभिमान के योग से, सत्य समाधान का नाश कर देता है, इस लिए आत्म-बुद्धि का निश्चय स्थिर रखना चाहिए ॥३५॥ श्रात्मज्ञान के सिद्ध हो जाने पर भी, कदाचित्, देहाभिमान सन्देह की कल्पना उठा देता है; इस लिए, आत्म-निश्चय-पूर्वक, समाधान की रक्षा करना चाहिए ॥ ३६ ॥ देहबुद्धि की याद आते ही विवेक का वि- स्मरण हो जाता है। अतएव, आत्मबुद्धि को दृढ़ता से धारण करना चाहिए ॥ ३७ ॥ निश्चय की आत्मबुद्धि होना ही मोक्षश्री की दशा श्रहमात्मा-मैं आत्मा हूं-यह कभी भूलना ही न चाहिए ॥ ३८॥ इस प्र- कार, यद्यपि यहां निश्चय का लक्षण बतला दिया है; पर सत्संग के बिना यह समझ नहीं आता-संतों के शरण में जाने से सब संशय मिट जाते हैं ॥३६॥ अच्छा, अब, यह वार्ता बस कीजिए; और सिद्धौ के लक्षण सुनिये । निःसन्देहता सिद्ध का मुख्य लक्षण है ॥ ४०॥ सिद्ध-स्वरूप में देह तो है ही नहीं; (अर्थात् वह निराकार है) फिर वहां सन्देह कहां से आया? इस लिए जो निःसन्देह है वही सिद्ध है ॥ ४१ ॥ देहाभिमान के कारण अनेक लक्षणों का अस्तित्व होता है; परन्तु जो देहातीत है. उसके लक्षण ।