पृष्ठ:दासबोध.pdf/२२६

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समास २] परमात्मा की प्राप्ति। पंचभूत और त्रिगुण से मिल कर जो यह अष्टधा प्रकृति बनी है उसका नाम है 'दृश्य ॥ १४ ॥ सो इस सब दृश्य (प्रकृति) को वेद और श्रुति नाशवंत कहते हैं, और निर्गुण ब्रह्म शाश्वत है । यह बात ज्ञानी जानते हैं! ॥ १५॥ ब्रह्म, शस्त्र से कट नहीं सकता; पावक से जल नहीं सकता; जल से गल नहीं सकता; वायु से उड़ नहीं सकता । वह गिरता-पड़ता नहीं है; और वनता-बिगड़ता नहीं है ॥१६-१७ ॥ वह किसी वर्ण का नहीं है, वह सब से परे है और सर्वदा बना ही रहता है ॥ १८ ॥ देख नहीं पड़ता तो क्या हुन्मा; परन्तु वह सब जगह है। जहां-तहां सूक्ष्मरूप से भरा हुआ है ॥ १६ ॥ मनुष्य की दृष्टि को कुछ ऐसी आदत पड़ गई है कि जो कुछ उसे देख पड़ता है उसीको तो वह समझता है कि "है" और वाकी, जो गुह्य है, उसको गोप्य कह कर, वह उसकी उपेक्षा करता है! ॥ २०॥ परन्तु सच तो यह है कि, जो कुछ प्रकट है उसे असार समझना चाहिए और जो गुप्त है उसे सार जानना चाहिए-यह विचार गुरु के ही मुख से अच्छी तरह समझ पड़ता है ॥ २१ ॥ जो समझ न पड़े उसे विवेक-इल से समझना चाहिए; जो देख न पड़े उसे विवेक-बल से देखना चाहिए और जो जान न पड़े उसे विवेक-वल से ही जानना चाहिए ॥ २२ ॥ जो गुप्त है उसीको प्रकट करना चाहिए; जो असाध्य है उसीकी साधना चाहिए और जो अवघड़ या कठिन है उसीका, अच्छी तरह, अभ्यास करना चाहिए ॥२३॥ चारो वेद, चतुर्मुख ब्रह्मा और सहस्रमुख शेप जिसका वर्णन करते करते थक गये हैं उसी परब्रह्म को प्राप्त कर लेना चाहिए ॥ २४ ॥ सन्तों के मुख से अध्यात्म-निरूपण का श्रवण करने से वह प्राप्त होता है ॥ २५ ॥ वह पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश नहीं है और न वहं रंग-रूप या नाम से व्यक्त हो सकता है । सारांश, वह सब प्रकार अव्यक्त है ॥२६॥ वही सत्य 'देव' है; और यों तो लोगोंने, अपने अज्ञान से, अनेक देवताओं की कल्पना कर ली है। जितने गावँ हैं उतने ही देवता हैं ! ॥२७॥ यह तो परमात्मा का निश्चय हुआ; अर्थात् यह बात समझ में आगई कि परमात्मा निर्गुण है । अब स्वयं 'अपने' को ढूँढना चाहिये॥२८॥ जो (आत्मा) यह समझता है कि "शरीर मेरा" है 'वह' वास्तव में शरीर से अलग ही है और 'जो' कहता है कि " मन मेरा" है 'वह' वास्तव में मन से भी भिन्न है ॥ २६ ॥ इधर देह का विचार करने से मा-

  • नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ।

न चैन क्लेदन्त्यापो, न शोषयति मारुतः- गीता ॥