पृष्ठ:दासबोध.pdf/२२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

.. १४६ दासबोध। [ दशक ६ लूम होता है कि यह सब पंचभूतों से ही बनी है । अच्छा, अब उन पांचो तत्वों को पांचो तत्वों में अलग अलग कर देने से, बाकी जो सार रहता है, वह और कुछ नहीं आत्मा ही है ॥३०॥ अब, जिसको 'मैं मैं' कहते हैं उसका तो वहां कहीं पता ही नहीं है-खोज किसका किर जाय ? पंचतत्व थे, सो जहां के तहां मिल गये ! ॥ ३१ ॥ इस तरह से विचार करने पर मालूम होता है, कि यह शरीर एक पंचतत्वों की गठड़ी है, यह नाश हो जाती है और दूसरा आत्मा है, वह अविनाश रहता है। वस, इन दो के सिवाय तीसरा “ मैं "-3 यहां कोई नहीं है ॥ ३२-३३ ॥ जब 'मैं' का कुछ पता ही नहीं है, तब फिर जन्ममृत्यु किसकी हो और कैसे हो ? यदि कहा जाय कि श्रात्मा जन्म लेता है तो यह कैसे हो स- कता है; क्योंकि वह पाप-पुण्य, जन्म-मृत्यु, आदि से अलग है ॥ ३४ ॥ जब 'उस ' निर्गुण में पाप-पुण्य, जन्म-मरण, यमयातना, आदि नहीं हैं. तब 'हम' में भी वे नहीं हैं, क्योंकि 'हम' भी तो 'वही ' हैं ॥ ३५ ॥ सारांश, यह जीव देहाभिमान के कारण बद्ध है; विवेक से देहाभिमान छूट जाता है और यह मुक्त हो जाता है ॥ ३६ ॥ बस, इतने से जन्म सार्थक हो जाता है-निर्गुण श्रात्मा और 'हम'-दोनों-एक हो जाते हैं। परन्तु, इसके दृढ़ीकरण के लिए,उत्त विवेक बार बार करते ही रहना चाहिए ॥३७ ॥ जैसे जग उठने पर स्वन नहीं रहता है वैसे ही विवेक से देखने पर 'दृश्य ' (पंचभौतिक सृष्टि) अदृश्य हो जाता है-मिट जाता है- नाश हो जाता है-और स्वरूप (ब्रह्मस्वरूप ) के अनुसंधान (खोज) से प्राणिमात्र तर जाते हैं ॥ ३८॥ विवेक से 'अपने' का निवेदन करके परमात्मरूप हो जाना चाहिए-उससे भिन्न न रहना चाहिए-यही आत्म- निवेदन है ॥ ३९ ॥ पहले अध्यात्म-निरूपण का श्रवण करना चाहिए फिर, सद्गुरु के चरणों की सेवा करनी चाहिए; तव, इसके बाद, सद्- गुरु के प्रसाद से, आत्मनिवेदन होता ही है ॥४०॥ आत्मनिवेदन के बाद अंतःकरण में यह बोध होता है कि 'वस्तु ' निर्मल, अलिप्त, स- म्पूर्ण, या अखंड, और शाश्वत है; और वही वस्तु ' (जो आत्मा है) हम स्वयं ' हैं ॥ ४१ ॥ उपर्युक्त ब्रह्मज्ञान से यह जीव स्वयं ब्रह्म ही हो जाता है और उसका संसार बन्धन कट जाता है, तथा वह आनन्द 6