पृष्ठ:दासबोध.pdf/२३३

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दासबोध। [दशक ६ ब्रह्म दिखता नहीं; माया भासती है, ब्रह्म भासता नहीं; भाया नाशवान् है और ब्रह्म कल्पांत में भी नाश नहीं होता ॥४॥ माया बनती है, ब्रह्म बनता नहीं; माया बिगड़ती है, ब्रह्म बिगड़ता नहीं; और माया अज्ञान को रुचती है, ब्रह्म अज्ञान को नहीं रुचता ॥ ५॥ माया उपजती है, ब्रह्म उपजता नहीं; माया मरती है, 'ब्रह्म सरता नहीं और साया का धारणा शत्ति से आकलन हो सकता है और ब्रह्म का नहीं हो सकता ॥६॥ माया फूटती है, ब्रह्म झूटता नहीं; माया टूटती है, ब्रह्म टूटता नहीं; और माया सलीन होती है, ब्रह्म मलीन नहीं होता वह अविनाश है ॥ ७ ॥ माया विकारी ब्रह्म निर्विकारी है। माया सब कुछ करती है, ब्रह्म कुछ भी नहीं करता और माया नाना रूप धरती है; परन्तु ब्रह्म अरूप है || माया के पंचभूतात्मक अनेक रूप हैं; ब्रह्म शाश्वत एक ही है । माया और ब्रह्म का विवेक विवेकी पुरुष जानते हैं ॥ ६ ॥ माया छोटी है, ब्रह्म बड़ा है; माया प्रसार है, ब्रह्म सार है; माया का श्रादि-अंत है, ब्रह्म का नहीं है ॥ १० ॥ सम्पूर्ण माया के विस्तार से ब्रह्मस्थिति छिपी हुई है; परन्तु साधु जन ब्रह्म को उससे निकाल लेते हैं ॥ ११ ॥ पानी के ऊपर का से- वार (शैवाल) हटा कर पानी ले लेना चाहिए; पानी छोड़ कर दूध का सेवन करना चाहिए-इसी प्रकार माया छोड़ कर ब्रह्म का अनुभव करना चाहिए ॥ १२ ॥ ब्रह्म आकाश की तरह स्वच्छ ( Pure ) है, माया पृथ्वी को तरह मलीन है; ब्रह्म सूक्ष्मरूप है और माया स्थूलरूप है ॥ १३ ॥ ब्रह्म अप्रत्यक्ष है; माया प्रत्यक्ष है; ब्रह्म सम है, माया विषमरूप है ॥१४॥ माया लक्ष्य है, ब्रह्म अलक्ष्य (अलख) है; माया साक्ष्य है, ब्रह्म असाक्ष्य है; माया में ज्ञान-अज्ञान दो पक्ष हैं, ब्रह्म में कोई पक्ष ही नहीं है ॥ १५॥ माया पूर्वपक्ष (संशययुक्त ) है, ब्रह्म सिद्धांत (उत्तरपक्ष) है; माया अ- नित्य है, ब्रह्म नित्य है; माया इच्छायुक्त है, ब्रह्म निरिच्छ है ॥ १६ ॥ ब्रह्म अखंड धन है, माया पंचभौतिक पोच है; ब्रह्म निरन्तर परिपूर्ण है, माया जीर्ण जर्जर है ॥ १७ ॥ माया घटित होती है, ब्रह्म घटित नहीं होता; माया गिरती है, ब्रह्म गिरता नहीं; माया बिगड़ती है, ब्रह्म बिगड़ता नहीं -जैसा का तैसा बना रहता है ॥ १८ ॥ कुछ भी हो, ब्रह्म बना ही रहता है, परन्तु माया निरसन करने पर नाश हो जाती है; ब्रह्म में संकल्प-वि- कल्प नहीं हैं, माया में हैं ॥ १६ ॥ माया कठिन है, ब्रह्म कोमल है; माया अल्प है, ब्रह्म विशाल है; माया का नाश होता है, ब्रह्म का नहीं होता ॥ २० ॥ वस्तु : ऐसी नहीं है. जो वतलाई जा सके और माया जैसी बतलाई जाय वैसी है, 'वस्तु ' (ब्रह्म) को काल नहीं पा सकता और