पृष्ठ:दासबोध.pdf/२३५

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दासबोध। [ दशक ६ तीर्थे तीर्थे निर्मलं ब्रह्मीदं । दे वंदे तत्वचिंतानुवादः । वादे वादे जायते तत्ववोधः । बोधे बोधे भासते चंद्रचूडः ॥ १॥ तीर्थाटन करने का कारण यह है, कि तीर्थों मेंसन्तसमागम के द्वारा, सारासार का विचार जान कर, ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं और गुरु-.' भजन का कारण गुरुगीता में स्वयं महादेवजी ने कह दिया है ॥ ११ ॥ गुरुभजन का नियम यह है, कि पहले’ उसके सच्चे स्वरूप को पहचानना चाहिए और फिर विधेक ले स्वयं उसीके रूप में लीन हो जाना चाहिए ॥ १२ ॥ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति । द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यं ।। एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं । भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ॥ १ ॥ ऐसा सच्चा स्वरूप सद्गुरु का गुरुगीता में कहा है। इस स्वरूप के तई सृष्टि का भास नहीं रह सकता" ॥ १३ ॥ इस प्रकार ज्ञानी जब सद्गुरु का सत्य स्वरूप बतला कर सृष्टि को मिथ्या निश्चित करता है तब तो अज्ञानी और भी अधिक विवाद करने पर तैयार होता है और कहता है कि "यो रे ! तू परमात्मा कृष्ण को श्रज्ञान सिद्ध करता है। ॥ १४-१५ ॥ गीता का "जीवभूतः सनातनः" वचन मिथ्या कैसे हो सकता है ? " ॥ १६ ॥ इस प्रकार आक्षेप करके जब अज्ञानी मन में खिन्न होने लगा तब ज्ञानी बोला:-॥ १७॥ गीता में श्रीकृष्ण ने जो कुछ कहा है उसका भेद तू नहीं जानता है, इसी कारण यह विवाद उठाता है ॥ १८ ॥ श्रीकृष्ण तो कहते हैं कि:---. अश्वत्थः सर्वक्षाणाम् ।। अर्थात् 'पीपल मेरी विभूति है ' । परन्तु वृक्ष तो टूट सकता है-और इधर वही कहते हैं किः-॥ १६ ॥ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ १ ॥ 'मेरा स्वरूप न शस्त्रों के द्वारा कट सकता है, न अग्नि से जल सकता है और न जल से गल सकता है। ॥ २० ॥ परन्तु पीपल (जिसे श्रीकृष्ण