पृष्ठ:दासबोध.pdf/२४

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प्रस्ताचना। धर्मप्रचार और जनोद्धार का कार्य । श्रीसमर्थ पहले पंचवटी से अपने तपस्थान टाकली को आये और वहाँ उद्धव स्वामी से भेट करके, श्रीरामचन्द्रजी के आदेशानुसार, कृष्णा के तीर धर्मप्रचार और लोकोद्धार का कार्य प्रारम्भ करने लिए, वे दक्षिण देश को चले। पहले पहल वे महाबलेश्वर को गये। और वपी-ऋतु के चार महीनों में ये वही रहे । वहाँ उन्होंने हनुमानजी का मठ स्थापन करके अपना सम्प्रदाय बढ़ाया और अनेक लोगों को भजनमार्ग में लगाया । अनन्त भट, दिवाकर भट्ट आदि कई विद्वान् वहाँ उनके शिष्य बने । महाबलेश्वर से चल कर, सितारा जिले में रामदासी सम्प्रदाय का प्रचार करते हुए, ये बाई में पहुंचे और वहाँ कृष्णा नदी के तट पर, एक अश्वत्थ- वृक्ष के नीचे रहने लगे। वाई क्षेत्र के पण्डित और शास्त्री उनका अध्यात्मज्ञान देख कर उनके शरण में गये और दीक्षा लेकर भजनमार्ग में लगे । वहाँ भी समर्थ में हनुमानजी की मूर्ति स्थापित की और मट का प्रवन्ध एक शिष्य के आधिकार में कर दिया । वाई क्षेत्र से चल कर वे माहुली में पहुँचे । वहीं गांव के बाहर, एक पहाड़ी के ऊपर, हनुमानजी के मन्दिर में रहने लगे। प्रातःकाल उठ कर वे कृष्णा नदी में स्नान करके संध्या आदि नित्यकर्म करते और दोपहर होने पर बस्ती में मधुकरी माँग कर भोजन करते थे। इसके बाद, फिर उसी पर्वत पर आकर भजन, जप और ध्यान में मग्न रहते थे। वहाँ कभी कभी उनके समकालीन संतजन एकत्र होकर धर्म-चर्चा किया करते थे । प्रत्येक साधु अपने अपने अनुभव की बातें बतलाता और सब मिल कर हरिभजन और कीर्तन करते थे। श्रीरामदासस्वामी का अनुपम सामर्थ्य देख कर उसी समय संत लोग उन्हें “समर्थ" कहने लगे। कुछ दिन माहुली में रह कर वे कहाड़ को चले गये। कहाड़-प्रान्त में उनके अलौकिक चमत्कारों को देख कर अनेक लोग उनके शरण में आये । उस प्रान्त के शाहपुर नामक ग्राम में उन्होंने हनुमान् का मन्दिर बनवाया और उसमें “ प्रताप मारूति" की स्थापना करके उसका प्रवन्ध बाजीपन्त नामक एक मुखिया को सौंप दिया । चाजीपन्त* ने सकुटुम्ब मंत्रोपदेश लिया । उनकी स्त्री सतीबाई समर्थ पर बहुत भत्तिा रखती थीं । समर्थ ने कई प्रकार के भयानक चमत्कार दिखला कर सती बाई की परीक्षा ली; पर वे वरावर अपनी भक्ति पर दृढ़ रहीं । यह देख कर समर्थ बहुत प्रसन्न हुए और कहते हैं कि उन्हें साक्षात् हनुमान्' का दर्शन कराया।

  • इनके पुत्र निकाजी गोस्वामी समर्थ के एा मुख्य महंत थे। वे संऔर के मठ में रहते

थे। समधे के निर्माण के बाद शाको १६०४ में उन्होंने समर्थ का मूल चरित-अंध ओवी छन्द में लिखा।