पृष्ठ:दासबोध.pdf/२४२

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समास ८] दृश्य का मिथ्याभास। पत्थर की पुतलियां नाना प्रकार के कौशल के साथ बनाई जाती हैं और बहुत सुन्दर मालूम होती है; परन्तु वहां है क्या-बही पत्थर ! ॥६॥ अनेक मंदिरों पर जो पुतलियां बनी होती है वे शरीर तिरछा करके, निरछी नजर से, देखती है-उनकी सुन्दरता देख कर तो वृत्ति तल्लीन हो जाती है। पर उनमें वही त्रिभाग (चूना, बालू और सूत श्रादि मसाला) होता हैं ॥१०॥ दशावतारों के नाटक खेलने में सुन्दर सुन्दर स्त्रियां वाती है और कलाकौशल के साथ याखें मटकाती है; परन्तु हैं वे सभी नाचनेवाले मर्द ! ॥ ११ ॥ यह सृष्टि बहुरंगी और असत्य है-यह बहु- रुपिया का तमाशा है; तुझे यह दृश्य अविद्या के कारण सत्य मालूम होता है ॥ १२॥ भूठ को साँच के समान देख तो लिया: परन्तु उसे विचारना चाहिए । दृष्टि की तरलता-चंचलता-के विकार से यदि कुछ और का और ही भास हो तो उसे सच कैसे मान सकते हैं? ॥१३॥ ऊपर देखने से अाकाश पट मालूम होता है और वही पानी में देखने से चित मालूम होता है-बीच में नक्षत्र भी चमकते हैं। पर यह सब दृश्य मिथ्या ही तो है ? ॥ १४ ॥ कोई राजा किसी चित्रकार को बुलाता है और वह चित्रकार राजकुटुम्ब के लोगों के यथातथ्य चित्र बनाता है; वे चित्र देखने से तो मालूम होता है कि, मानो सचखंच वही लोग हैं, जिनके चित्र बनाये गये हैं। पर वास्तव में है वह सब मायिक रचना: ॥१५॥ स्वयं नेत्रों में कोई चित्र नहीं होता; परन्तु जब हम कुछ देखते हैं तब उस दृश्य वस्तु का हमारे नेत्रों में प्रतिबिम्ब आ जाता है-अब यह प्रति- विम्ब स्वयं वह वस्तु ही कैसे मानी जा सकती है ? ॥ १६ ॥ पानी में जितने पुलबुले उटते हैं उन सब में हमारे अनेक रूप देख पड़ते हैं; परन्तु क्षणभर ही में, उनके सूट जाने पर, उन रूपों की झुठाई प्रकट हो जाती है ॥ १७ ॥ हाथ में जितने छोटे छोटे दर्पण लिये जाते हैं उतने ही सुख देख पड़ते हैं; परन्तु क्या वास्तव में हमारे उतने ही भुख हैं ? मुख तो एक ही है-वह केवल मिथ्याभास है ॥ १८॥ नदी के तीर तीर वोझा ले जाने से दूसरा बोझा उलटा नदी में देख पड़ता है; अथवा अचानक प्रतिध्वनि की गर्ज होने लगती है ॥ १६॥ किसी बावड़ी या तालाब के तीर, पानी मैं, पशु, पक्षी, नर, वानर और नाना प्रकार के वृक्ष और लताओं आदि का विस्तार देख पड़ता है ॥२०॥ तलवार फेरते समय, देखने में एक की दो तलवारें देख पड़ती हैं और तरह तरह के तंतुओं को टंकारने से एक के दो से मालूम होते हैं ॥ २१ ॥ अथवा दर्पणों के मन्दिर में यदि सभा लगी हो तो एक दूसरी सभा, आभारूप में, २१