पृष्ठ:दासबोध.pdf/२४४

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समारा ] गुप्त परमात्मा की खोज। है और मन उसके भास पर जम जाता है ॥ ३६॥ अविद्या, अविद्या को देखती है, इसीलिए उत्त वात पर विश्वास हो जाता है। क्योंकि तेरा शरीर भी तो अविद्या ही का बना हुआ है न ? * ॥ ४० ॥ और उसी काया को तृ स्वतः 'मैं ' मानता है-यह देहबुद्धि का लक्षण है-इसीसे सम्पूर्ण दृश्य तेरे लिए सञ्चा जान पड़ता है ॥ ४२ ॥ इधर तो देह को सत्य मान लेता है और उधर यह धारणा कर लेता है कि दृश्य सत्य है, इसी कारण प्रबल सन्देह या जाता है !॥ ४२ ॥ देहबुद्धि को दृढ़ करके, धृष्टता के साथ, ब्रह्म देखने के लिए जाता है। परन्तु यहां दृश्य (माया) परब्रह्म को रास्ता हो रोक लेता है॥४३॥ इस लिए दृश्य को ही सत्य समभा कर भ्रम में पड़ जाता है ॥ ४ ॥ अस्तु । 'मैं'-पन से ब्रह्म नहीं मिलता । देहबुद्धि के कारण ही दृश्य का मिथ्याभास भी सत्य जान पड़ता ॥४५॥ चर्म-चन्नुओं से ब्रह्म का दर्शन करनेवाला, ज्ञाता नहीं कहा जा सकता । उसे अंधा या बिलकुल मूर्ख ही कह सकते हैं ! ॥४६॥ जितना कुछ दृष्टि से देख पड़ता है और जो कुछ मन को भास होता है वह सब कालान्तर में नाश होता है। परन्तु वह अविनाशी परब्रह्म दृश्य से परे है ॥४७॥ सर्व शास्त्र परब्रह्म को शाश्वत और माया का अशाश्वत निश्चित करते है ॥४८॥ अब आगे देहधुद्धि का लक्षण बतला कर यह भी बतलाया जाता है कि भ्रम में पड़ा हुश्रा “मैं" कौन है ॥ ४६॥ 'मैं' को जान कर, 'मैं'-पन छोड़ते हुए, परमात्मा में अनन्य होने से सहज हो परम शान्ति मिलती है ॥ ५० ॥ नववाँ समास-गुप्त परमात्मा की खोज । ॥ श्रीराम ॥ घर में गुप्त धन को नौकर लोग नहीं जानते उन्हें सिर्फ बाहर बाहर का ज्ञान होता. है ॥ १॥ बाहर के प्रकट दिखनेवाले पदार्थों की उपेक्षा करके, चतुर पुरुष भीतर का मुख्य धन ढूँढ लेते हैं ॥ २॥ इसी प्रकार विवेकी मनुष्य इस माथिक दृश्य ( सृष्टि) को छोड़ कर परमात्मा को

  • दृश्य अविद्यात्मक है और इधर तेरा देह भी अविद्यात्मक ही है-ऐसी दशा में तेरे अ-

विद्यात्मक शरीर को ( और शरीर ही को तू 'मैं' मानता है, इस लिए तुझे ) यह अवि- द्यात्मक दृश्य जगत् यदि सच जान पड़े तो कोई बड़ी वात नहीं है-मामूली है।