पृष्ठ:दासबोध.pdf/२४७

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दासबोध । [दशक ६ सूक पुरुप गुड़ का मिठास नहीं बतला सकता, उसी प्रकार, कहते हैं कि, अनुभव भी नहीं बतलाया जा सकता । इसका क्या कारण है ? श्राप बतलाइये ॥२-३ ॥ जिससे पूछिये वही कहता है कि यह वात. अगम्य है; पर मुझे. कुछ इस पर विश्वास नहीं होता। अब आप ऐसा कीजिये, कि जिससे यह विचार मेरे मन में श्रा जाय"॥ ४ ॥श्रोता के इस प्रश्न का उत्तर अब सावधान होकर सुनिये ॥ ५॥ अव परमशान्ति की बात, अथवा आत्मानुभव का स्वरूप, में स्पष्ट रोति से बतलाता हूं ॥ ६॥ जिसका. वाचा-द्वारा प्राकलन नहीं हो सकता, तथा जो बोले विना मालूम भी नहीं होता, और जिसकी कल्पना करने से कल्पनाशक्ति थक जाती है, वह वेदों का परम गुह्य परब्रह्म सन्त-समागम से मालूम होता है || ७-८॥ अस्तु, अब गम्भीर शान्ति का निरूपण करते हैं-अनुभव के बोल सुनिये-अनिर्वाच्य वस्तु का रहस्य बतलाते हैं ॥ ६ ॥ जो बात वतलाई नहीं जा सकती वह बतलाना ऐसा है, जैसे मिठास जानने के लिये गुड़ देना! यह काम गुरु के बिना नहीं हो सकता ॥१०॥जो 'अपने' का अन्वेपण करता है-अर्थात् जो देहाभिमान का त्याग करता है उसे पहले सद्गुरु-कृपा प्राप्त होती है । इसके बाद 'वस्तु' श्राप ही आप अनुभव में आ जाती है ॥ ११ ॥ बुद्धि को दृढ़ करके प्रथम इसका पता लगाना चाहिये कि " मैं कौन हूं"-इससे एकदम समाधि लगती है ! ॥ १२ ॥ 'अपने' का मूल खोजने से मालूम हो जाता है कि 'अपने' की बात मिथ्या है-यह अनुभव होने पर वास्तव में स्वयं 'वस्तु'-रूप हो जाते हैं-यही परमशान्ति है १३ ॥ पूर्वपक्ष में आत्मा को सर्वसाक्षी कहा है; परन्तु सिद्ध पुरुप पूर्वपक्ष छोड़ कर सिद्धान्त ही ग्रहण करते हैं ॥ १४ ॥ और, सिद्धान्त पर जव हम ध्यान देते हैं तब मालूम होता है कि प्रात्मा सर्वसाक्षी नहीं है, किन्तु 'अवस्था' सर्वसाक्षी है, और आत्मा उससे भिन्न, अर्थात् अवस्थातीत है ॥ १५ ॥ जब पदार्थ-ज्ञान का लय हो जाता है और दृष्टा, (परमात्मा को देखनेवाला) दृष्यापन के रूप में, नहीं रहता (अर्थात् जब वह भी स्वयं ब्रह्म में लीन हो जाता है) तब 'मैं'-पन का नशा उतरता है ! ॥ १६ ॥ और, मैपन का लय हो जाना हो अनुभव । का लक्षण है-इसी कारण इसे अनिर्वाच्य समाधान कहते हैं; क्योंकि जब 'मैं' कुछ रह ही नहीं गया तब समाधान का वर्णन करेगा कौन ? ॥१७॥ चाहे जैसे विवेक के बोल हों, तो भी, अनुभव की दृष्टि से, वे मायावी और व्यर्थ ही हैं। परन्तु वे शब्द, भीतर बाहर, गंभीर अर्थ से भरे हुए होते हैं ! ॥१८॥ शब्दों से अर्थ मालूम होता है और अर्थ के विचा-