पृष्ठ:दासबोध.pdf/२४८

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अनुभव अकयनीय है। रने पर शब्द व्यर्थ हो जाते हैं। शब्द जो कुछ कहते हैं वह यथार्थ है; पर स्वयं के (शब्द) मिथ्या है ॥ १६ ॥ शब्दों के योग से 'वस्तु' का भालना है और 'वस्तु के देखने पर शब्दों का नाश हो जाता है- मर्यान्मादों के खोल से घना अर्थ खींच लेने पर शब्द ब-काम हो जाते

  • ॥२०॥ अथवा शब्दों को भूसा, और अर्य को अनाज लमसिये । अनाज

निकाल कर, यद्यपि भूला फेंक देते हैं, तथापि अनाज मिलता भूसे ही से

  • ॥ २२ ॥ जिस प्रकार पोल कट में ठोस (दाना) होता है और ठोस

में पोन्नकट नहीं होता उसी प्रकार परब्रह्म शब्दों में होता है, परन्तु पर- ब्रा में शब्द नहीं होते ॥ २२ ॥ बोलने के बाद शब्द नहीं रहतेः परन्तु अर्थ, शब्दों के निकलने के पहले से ही, विद्यमान रहता है; अतएव शब्द धर्य की बराबरी नहीं कर सकते ॥ २३ ॥ जिस प्रकार भूसा छोड़ कर अनाज ले लेते हैं उसी प्रकार याच्यांश (शब्द) छोड़ कर लक्ष्यांश, (अर्थ या ब्रह्म ) शृद्ध, स्वानुभव से, ग्रहण करना चाहिए ॥२४॥ दृश्य से अलग-अर्थात् ब्रहा के विषय में जो कुछ बोला जाय उसे वाच्यांश कहते हैं और उनके अर्थ को शुद्ध लक्ष्यांश कहते हैं ॥२५॥ उक्त शुद्ध 'लक्ष्यांश' को भी पूर्वपन ही समझना चाहिए, स्वानुभव तो अलक्ष्य 'अलख ' है- यह लन में नहीं आ सकता ॥ २६॥ जिसको आकाश की भी उपमा नहीं दी जा सकती, और जो अनुभव का सार हैं, उसको 'लक्ष्यांश' कहना भी कल्पना ही है ! ॥ २७ ॥ जो मिथ्या कल्पना से उत्पन्न हुआ है उनमें सत्यता कहां से आई ? अतएव, उसमें अनुभव का क्या काम है ? ॥ २८ ॥ परन्तु, अद्वैत (परब्रह्म) के तई भी अनुभव का कोई काम नहीं है अनुभव तो देत ही में रह सकता है ॥ २६ ॥ अनुभव के कारण तो त्रिपुटी (अनुभचिता, अनुभान्य और अनुभव ) उपजती है-और अ- द्वैत में द्वैत ही लजित होता है-वहां त्रिपुटी का कैसे निर्वाह होगा-श्रत- एब, यही कहना अच्छा लगता है, कि वह 'अनिर्वाच्य है ॥ ३०॥ दिन-रात को परािमत करनेवाला सूर्य है। परन्तु यदि सूर्य ही का नाश हो जाय तो उस अवस्था को क्या कहेंगे? ॥ ३१ ॥ इसी प्रकार शब्दोच्चार करने अथवा मौन रहने का मूल ओंकार है; परन्तु यदि वह ओंकार ही न रहे तो उन्चार कैसे किया जाये ? ॥ ३२ ॥ अनुभव, अनुभविता और अनु- मान्य, इत्यादि सब माया ही से हैं और यदि माया ही न रहे तो उसे क्या कहेंगे? ॥ ३३ ॥ 'वस्तु'और 'हम' दोनों यदि अलग अलग होते तो अनुभव का विवेक अच्छी तरह बतलाया जा सकता ॥ ३४ ॥ भिन्नता की बात, वाँझ की लड़की के समान, मिथ्या है-श्रादि से ही भिन्नता