पृष्ठ:दासबोध.pdf/२५

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दासबोध । इस प्रकार धर्म का प्रचार करते हुए समर्थ चाफल नामक ग्राम के समीप पहुँचे । यहाँ वे पहले कई वर्षों तक वन-पर्वतों की दरी, खोरी और कन्दराओं में घूमते रहे। उस समय बस्ती में ये बहुत कम आते जाते थे । जब कभी वे लोगों के सामने निकलने नव अवधूत दशा में रहने के कारण लोग उन्हें पागल समझते थे। परन्तु वास्तव में वे पागल नहीं थे; उनका चित्त अखंडरूप से भगवान् में लग। हुआ था । श्रीसमर्थ के दानबांध में उनके आत्मचरित का आभास कई स्थानों में पाया जाता है। एक समान में उन्होंने निस्पृह महन्त लोगों के बीच का वर्णन किया है। उनी समान में वे कहते हैं कि मैंने यह सब पहले किया है। फिर लोगों को बनलाया है। यह समास बड़े महत्त्व का है चाफल में रह कर, पहले वे बहुत दिनों तक किस प्रकार धर्मप्रचार और लोकोद्धार का कार्य करते रहे- था वान ३ समास के पढ़ने से प्रकट होता है। इस समास के दो पद्य हम यहाँ पर उन्हत करते हैं। उनसे पाटक गण यह अनुमान कर सकेंगे विः लोका- धार का प्रयत्न पे किम चतुराई के साथ करते थे। उत्तम गुण तितुके ध्याये । घेऊन जनास शिकवावे । उदंड समुदाय करावे । परी गुप्तरूपै ॥ १८ ॥ अखंड कामाची लगबग । उपासनेस लवावे जग । लोक समजॉन मग । आज्ञा इछिती ॥ १९ ।। दा० चो० द० ११ स० १०॥ "उत्तम उत्तम गुण. पहले स्वयं सीख कर फिर लोगों को सिखलाना चाहिए । प्रचण्ट समुदाय इकट्ठा करना चाहिए; पर गुप्त रूप से । काम कभी वन्द न करना चाहिए। सारे जगत् को, सारे देश को उपासना में--आत्माराम के भजन में- लगाना चाहिए। लोगों को अपने कर्तृत्व का परिचय देना चाहिए; क्योंकि लोग जब जान लेते हैं कि यह सच्चा महंत है तभी आज्ञा पाने की इच्छा करते हैं।' इस प्रकार नाफल में रह कर समर्थ ने हजारों शिष्य और सैकड़ों महन्त निस्पृह तैयार किये और महाराष्ट्र के अनेक स्थानों में स्थापित किये हुए मठों में उन्हें नियत किया इस प्रकार भजन और उपासनामार्ग की खूब वृद्धि करके समर्थ ने लोगों को स्वधर्म में प्रवृत्त किया। स्वधर्म की जागृति होते ही लोगों में स्वाभिमान और ऐक्य का अंकुर उठा । यवन या म्लेच्छ लोगों से, जिनका उस समय महाराष्ट्र में ( या भारत भर में ) अधिकार था, अपनी स्वतंत्रता और अपना धर्म बचाने की प्रचण्ड या तीव्र इच्छा लोगों के मन में जागृत हुई। इस प्रकार समर्थ रामदासस्वामी ने धर्म और खतंत्रता के विषय में उस समय विचारक्रान्ति पैदा कर दी। यह सब हाल जिस दिन छत्रपति शिवाजी महाराज के कानों तक पहुँचा उसी दिन उनके मन में, समर्थ के