पृष्ठ:दासबोध.pdf/२५२

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समास १] माया की खोज। करुणा की प्रार्थना करता है, तब वह रूपायन सद्गुरु साधकों पर प्रसन्न होता है ॥ १४ ॥ वह ( सद्गुरु ) भवार्णव (संसार-समुद्र) की नौका है; वह भाविकों को, बड़े भारी भवर में, आधार है। वह उन्हें अपने बोध-द्वारा संसार से मुक्त करता है।॥१५॥वह काल का नियन्ता है, संकट से छुड़ाने- वाला है और भाविकों की परम स्नेहालु माता है ॥ १६ ॥ वह पर- लोक का आधार है, वह विधान्ति का स्थल है और सुख का सुखस्वरूप श्राश्रयस्थान है । ॥ १७ ॥ ऐसा जो पूर्ण सद्गुरु है, जिसके द्वारा भेद का बन्धन टूट जाता है उस प्रभु को. विदेह होकर, मैं साष्टांग प्रणाम करता हूं! ॥ १८ ॥ अस्तु । अब साधु-संत, सज्जन और श्रोता जनों को नमस्कार करके कया का प्रारम्भ करता हूं। सावधान होकर सुनियेः- ॥ १६ ॥ संसार ही एक वडास्वप्न है। यहां, मोह के कारण, लोग यह वर्राया करते हैं कि, यह मेरी कांता है, यह मेरा धन है और ये मेरे कन्या-पुत्र हैं ॥२०॥ ज्ञानसूर्य के अस्त हो जाने से प्रकाश लुप्त हो गया है और सारा ब्रह्मांड अंधकार से भर गया है ! ॥ २१ ॥ सत्व की चांदनी नहीं रही है कि, जिसले कुछ मार्ग देख पड़े-भ्रांति के कारण सब लोग श्राप ही अपने को नहीं पहचानते ! ॥ २२ ॥ देहबुद्धि के अहंकार से लोग घोर निद्रा में सोये हुए खुर्राटे ले रहे हैं, और विषयसुख के लिए, दुःख से तड़फड़ाते हुए, रो रहे हैं ! ॥ २३ ॥ न जाने कितने, इसी प्रकार सोते ही सोते, मर चुके हैं और अनेकों पैदा होते ही सोते गये है-इसी तरह असंख्यों लोग इस संसार में आये और गये ! ॥ २४॥ इस प्रकार, सुप्तावस्था में रह कार ही भटकते भटकते, अनेकों लोग, परमात्मा को नजानने के कारण, श्रावा- गमन का कष्ट भोग रहे हैं ! ॥ २५ ॥ उस कष्ट को दूर करने के लिए श्रात्म-ज्ञान की आवश्यकता है-इसी लिए यह अध्यात्म-ग्रन्थ "दासबोध" प्रकट हुआ है ! ॥२६॥ सब विद्याओं में अध्यात्म-विद्या श्रेष्ठ है । इस विषय में, भगवद्गीता के दसवें अध्याय में, भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं:- ॥ २७ ॥ अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ।। अतएव, अध्यात्म-विद्या को वही समझ सकता है, जो अपनी सव इन्द्रियां, मन-सहित, उसमें लगा देता है ॥ २८ ॥ जिस पुरुप का मन च- ञ्चल है, वह अध्यात्म-विद्या से कोई लाभ नहीं उठा सकता ॥ २६ ॥ पर- मार्थी पुरुष को ही अध्यात्म-विद्या का विचार करना चाहिए, इससे उस- का परमार्थ और भी दृढ़ हो जाता है ॥ ३०॥ परमार्थ में जिसका प्रवेश