पृष्ठ:दासबोध.pdf/२५३

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2 १७२ दासबोध। [दशक ७ नहीं है वह अध्यात्मग्रन्थ नहीं समझ सकता । विना नेत्रों के भला कोई कुछ देख भी सकता है? ॥३१॥ वहुत लोग कहते हैं कि, "प्राकृत भाषा कुछ ठीक नहीं है-यह तो भले आदमी को सुनना ही न चाहिए !" परन्तु वे सूर्ख अर्थान्वय की सरलता नहीं जानते ! ॥ ३२ ॥ जैसे लोहे की संदूक में नाना प्रकार के रत्न भरे हुए हों और कोई अज्ञान उसे लोहा जान कर त्याग दे, उसी प्रकार प्राकृत भाषा में प्रकट किये हुए वेदान्ततत्व, भ्रान्त पुरुष, अपनी मंदबुद्धि के कारण, त्याग देते हैं! ॥३४॥ अनायास धन मिल जाने पर, उसे त्याग देना मूर्खता नहीं तो क्या है ? द्रव्य ले लेना चाहिए और द्रव्य-पान (संदूक, आदि) की तरफ देखना भी न चाहिए ॥ ३५॥ अंगन में पड़ा हुआ पारस, मार्ग में पड़ा हुआ चिन्तामणि और कुएं में लगी हुई दक्षिणावर्ती वेल सभी ले लेते हैं ॥३६॥ उसी प्रकार यदि प्राकृत भाषा में, सुगम रीति से और अनुभवयुक्ता, अद्वैत-निरूपण किया गया हैं और उससे अनायास अपने को अध्यात्म-ज्ञान का लाभ होता है तो उसे अ- वश्य ले लेना चाहिए ॥ ३७॥ सन्त-समागम करने से, विद्याभ्यास का श्रम न करने पर भी, सब शास्त्र-ज्ञान सुलभ हो जाता है ॥ ३८ ॥ जो विद्याभ्यास से नहीं मालूम होता, वह सन्तसमागम-द्वारा मालूम हो जाता है और सव शास्त्रों का ज्ञान अनुभव में आ जाता है ॥ ३६॥ अतएव, ज्ञान प्राप्त करने का सन्तसमागम ही मुख्य उपाय है । व्युत्पन्नता का परि- श्रम करना व्यर्थ है। जीवन सार्थक करने का रहस्य दूसरा ही है! ॥४०॥ भाषाभेदाश्च वर्तन्ते ह्यर्थ एको न संशयः ।। पानद्वये यथा खाचं स्वादभेदो न विद्यते ॥ १॥ भाषा-भेद से कुछ अर्थ में त्रुटि नहीं आ सकती; और मुख्य मतलब

  • श्रीसमर्थ रामदास स्वामी और श्रीगोस्वामी तुलसीदास, इत्यादि सन्त महात्माओं ने

मराठी और हिन्दी आदि प्राकृत भाषाओं पर अनन्त उपकार किया है। इन्होंने, अपने अपने समय में, प्राकृत भाषाओं के द्वेषी, अदूरदर्शी संस्कृतज्ञ पण्डितों को, अपने अलौकिक सामर्थ्य से, चकित किया और उनके मन में प्राकृत भाषाओं की भक्ति उत्पन्न की। महात्मा तुलसीदासजी से जव एक संस्कृत के हिमायती ने पूछा, कि आप अपने ग्रन्थ संस्कृत में क्यों नहीं लिखते, तव उन्होंने बड़ी शान्ति से यह उत्तर दियाः-- का 'भाखा' का संस्कृत, प्रेम चाहिये सांच । काल जो आवे कामरी, का लै करे कमाच ।