पृष्ठ:दासबोध.pdf/२५४

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समारा १] माया की योज। अर्थही से है ॥ ११॥ वास्तव में प्राकृत भाषा से ही संस्कृत का महत्व है अन्यथा संस्कृत के गुप्त अर्थ को, नर्व-नाधारण लोग, किस प्रकार समझ सकत? ॥ ४२ ॥ अव ये बातें रहने दो । भाया छोड़ कर अर्थ ग्रहण करना चाक्षिा-सार लेकर छाल और बकले का न्याग करना चाहिए ! ॥४३॥ अर्थ सार है श्रीर भाषा पोलकट है। लांग भाषा की ग्घटपट अभिमान से करते हैं। नाना प्रकार के अभिमान ने ही मोक्ष का मार्ग रोक रखा है ॥ 2 ॥ लक्ष्य अंश को ढूँढ़ते समय वान्य-अंश की बात ही क्यों करना चाहिए? भगवान् की अगाध महिमा जानना चाहिए ॥ १५॥ जिस प्रकार मृकावन्या के बोल मूक ही जानता है; उसी प्रकार स्वानुभव की बात स्वानुभवी ही जान सकता है ॥ ४६॥ अध्यात्म-विद्या को समझने- वाले धोना बिरले ही मिलते हैं । उनको उपदेश करने से, वाणी को श्रा- नन्द होता है ॥ ४७ ॥ रत्नपारखी को रत दिखलाने से जिस प्रकार श्रा- नन्द होता है, उसी प्रकार मानी से ज्ञान को वाती करने में बहुत अानन्द श्राता है ॥ १८ ॥ जो पुरुप मायाजाल से दुश्चित्त रहता है, उसे अध्यात्म-निरूपण से कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि उसे उसका अर्थ ही नहीं समझ पड़ता ॥ १६ ॥ श्रीकृष्ण भगवान् गीता में करते हैं:- व्यवसायात्मिका बुद्धिरकह कुरुनंदन । बहुशारखा ह्यनंताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ १ ॥ व्यवसाय के कारण जिसकी बुद्धि मलीन हो गयी है उसे अध्यात्म- निरूपण नहीं समझ पड़ता; क्योंकि उसमें तो बड़ी सावधानी की जरू- रत है न ? ॥ ५० ॥ जैसे नाना प्रकार के रत्न और सिक्के यदि दुश्चित्तता के साथ (विना परखे ) लिये जायें तो हानि होती है। परीक्षा न जानने के कारण लोग ठगे जाते हैं; उसी प्रकार अध्यात्म-निरूपण भी, विना मन लगाये, नहीं समझ पड़ता-चाहे जितना करो, प्राकृत भाषा ही समझ में नहीं पाती! ॥ ५१-५२॥ कोई भी भाषा हो, यदि उसमें अध्यात्म- निरूपण का विपय है, और अनुभव का रस है, तो उसे संस्कृत से भी गम्भीर समझना चाहिए-उसीका सुनना अध्यात्म-श्रवण है ॥ ५३ ॥ माया और ब्रह्म के पहचानने को अध्यात्म कहते हैं; तथापि पहले माया का स्वरूप जान लेना चाहिए ॥ ५४॥ माया सगुण और साकार है, वह सब प्रकार से विकारी है और उसे

  1. भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने भी एक जगह कहा है: वात अनूठी चाहिए, भाषा को होय ।